Tuesday, December 21, 2010

अक्षर छत्तीसगढ़

सुतनुका का प्रेम संदेश
'ओड़ा-मासी-ढम', अजीब से लगने वाले ये छत्तीसगढ़ी शब्द, विद्यारंभ संस्कार के समय लिखाए जाने वाले 'ओम्‌ नमः सिद्धम्‌' का अपभ्रंश हैं, यानि ककहरा (वर्णमाला) 'क ख ग घ' या 'ग म भ झ' का अभ्यास, इस मंत्र से आरंभ होता था। अब भी कहीं-कहीं पाटी-पूजा के रिवाज में यह प्रचलित है। इस मंत्र का उपयोग विनम्रतापूर्वक अपनी अपढ़-अज्ञानता की स्वीकारोक्ति के लिए भी किया जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ में पुराने जमाने के सबूत कम उजले नहीं हैं।

पहले कुछ बातें, लिखावट की। सभ्यता के क्रम में विचारशील मानव ने अपने भावों को भाषा में और फिर भाषा को लिपि में ढालकर, दूरी और काल की सीमाओं को लांघने का साधन विकसित किया है। हड़प्पा सभ्यता की ठीक-ठीक पढ़ी न जा सकी लिपि और मौर्यकाल के प्रमाणों के बीच, लगभग 2500 साल पुराने बौद्ध ग्रंथ 'ललित विस्तर' में 64 तथा जैन सूत्रों में 18 लिपियों की सूची मिलती है। इन्हीं सूचियों की ब्राह्मी लिपि से विकसित (भारत की लगभग सभी लिपियां और) हमारी आज की देवनागरी लिपि, सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि मानी गई है। यही नहीं, भले ही कागज का अविष्कार लगभग 2000 साल पहले चीन में हुआ माना जाता है, लेकिन 2400 साल पहले निआर्कस ने लिखा है कि हिन्दू (भारतीय) लोग कुंदी किए हुए कपास पट (कपड़े जैसे कागज) पर पत्र लिखते हैं।

छेनी, लौह-शलाका, बांस, नरकुल और खड़िया लेखनी बनती थी और मसि या स्याही सामान्य प्रयोजन के लिए कोयले को पानी, गोंद, चीनी या अन्य चिपचिपा पदार्थ मिलाकर बनाई जाती थी। स्थायी स्याही लाख का पानी, सोहागा, लोध्रपुष्प, तिल के तेल का काजल आदि को मिलाकर खौलाने से बनती थी। भूर्जपत्रों पर लिखावट के लिए उपयोगी, बादाम से बनाई गई स्याही तथा रंगीन स्याही का उल्लेख व तैयार करने का विवरण भी पुरानी पोथियों में प्राप्त होता है।

लिखना, लिपि, ग्रंथ जैसे शब्दों के मूल में लेखन की क्रिया-प्रक्रिया ही है। 'लिख' धातु का अर्थ कुरेदना है। 'लिपि' स्याही के लेप के कारण प्रचलित हुआ। 'पत्र' या 'पत्ता' भूर्जपत्र और तालपत्र के इस्तेमाल से आया। पत्रों के बीच छेद में धागा पिरोना 'सूत्र मिलाना' है और सूत्र ग्रंथित होने के कारण पुस्तक 'ग्रंथ' है, जबकि 'पुस्त' शब्द का अर्थ पलस्तर या लेप करना अथवा रेखाचित्र बनाना है। यानि ग्रंथ बनने की प्रक्रिया में पहले पत्रों पर लोहे की कलम अथवा सींक से अक्षर कुरेदे जाते थे, स्याही का लेप कर अक्षरों को उभारा जाता था, छेद बना कर उसमें धागा पिरोया जाता था तब वह ग्रंथ बनता था।

 किरारी काष्‍ठ स्‍तंभ
छत्तीसगढ़ में सभ्यता ने लिखावट के पहले-पहल जो प्रमाण उकेरे उनमें उड़ीसा की सीमा पर स्थित विक्रमखोल का चट्टान लेख है, जो हड़प्पा और ब्राह्मी लिपि के संधिकाल का माना गया है। आगे बढ़ते ही साक्षर छत्तीसगढ़ की तस्वीर साफ होती है, सरगुजा के रामगढ़ में, जहां पत्थर पर उकेरा, दुनिया का सबसे पुराना प्रेम का पाठ सुरक्षित है- 'सुतनुका देवदासी और देवदीन रूपदक्ष' का उत्कीर्ण लेख। किरारी से मिले लकड़ी पर खुदे दुनिया के सबसे पुराने कुछ अक्षर आज भी महंत घासीदास संग्रहालय, रायपुर में सुरक्षित हैं, जिसमें तत्कालीन राज व्यवस्था के अधिकारियों के पदनाम हैं और यहीं कुरुद का वह ताम्रपत्र भी है, जिसमें राजकीय अभिलेखागार के अस्तित्व और ताम्रपत्रों के चलन में आने की पृष्ठभूमि पता लगती है। महाभारत में उल्लिखित छत्तीसगढ़ के ऋषभतीर्थ-गुंजी में एक-एक हजार गौ के दान का हवाला है वहीं छत्तीसगढ़ी का सबसे पुराना नमूना, दन्तेवाड़ा के दुभाषिया शिलालेख में पढ़ने को मिलता है।

मत्स्यपुराण का उल्लेख है - ''शीर्षोपेतान्‌ सुसम्पूर्णान्‌ समश्रेणिगतान्‌ समान। आन्तरान्‌ वै लिखेद्यस्तु लेखकः स वरः स्मृतः॥'' अर्थात्‌ उपर की शिरोरेखा से युक्त, सभी प्रकार से पूर्ण, समानान्तर तथा सीधी रेखा में लिखे गए और आकृति में बराबर अक्षरों को जो लिखता है वही श्रेष्ठ लेखक कहा जाता है। यह कोटगढ़ (अकलतरा) के शिलालेख के इस हिस्‍से में घटा कर देखें।

वृहस्पति का कथन है - ''षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः। धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढान्‍यतः पुरा॥'' अर्थात्‌, किसी घटना के छः माह बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसलिए ब्रह्मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है। किन्तु भ्रम से बचने के लिए ब्रह्मा द्वारा बनाई अक्षरों की लिपि 'ब्राह्मी' पढ़ना ही भुला दी गई और जब 1837-38 में जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी की पूरी वर्णमाला उद्‌घाटित की, तब देवताओं का लेखा, बीजक या गुप्त खजाने का भेद समझे जाने वाले लेख, इतिहास की रोमांचक जानकारियों का भंडार बन गए और भारतीय संस्कृति की समृद्ध सूचनाओं का खजाना साबित हुए। पत्थरों पर खुदी इबारत में तनु भावों की कविता पढ़ ली गई और तांबे पर उकेरे गए अक्षर, सुनहरे-रुपहले इतिहास के पन्ने बने तब अक्षरों में हमारा गौरवशाली अतीत उजागर हुआ।

ये सब तो पुरानी बातें हैं। आज का समय 'बायनरी' के दो संकेत-अक्षरों का है, लेकिन इसमें संवेदना का अदृश्य आधा अक्षर जुड़कर 'ढाई आखर' प्रेम के बनते हैं, जो छत्तीसगढ़ में रामगढ़ की पहाड़ी में उकेरे गए और आज भी कायम हैं। छत्तीसगढ़ी अक्षर-ब्रह्म नमन सहित पढ़ाई-लिखाई की आरंभिक लोक-उच्चारण स्तुति 'ओड़ा-मासी-ढम' अनगढ़ और बाल-सुलभ तोतली सी हो कर भी, सार्थक और शुभ है।

आपस की बात :

इसके साथ कुछ पुराने गोरखधंधों का स्मरण। गुरुजी ने कभी कहा कि पुराने अभिलेख पढ़ना सीखना है तो उसी तरह से खुद लिखा करो, बस फिर क्या था, छेनी तो नहीं पकड़ी, लेकिन कागज कलम से नरकुल तक आजमा ही लिया। यानि गुरुओं की प्रेरणा से, मत्स्य पुराण के निर्देश अनुरूप, 'श्रेष्ठ लेखक' बनने की धुन में कम कलम-घिसाई नहीं की है हमने भी, इसका एक नमूना, कोई बारह सौ साल पुरानी ब्राह्‌मी के कोसलीय विशिष्टता वाली पेटिकाशीर्ष लिपि में ताम्रपत्र पर ग्रामदान प्रयोजन से उकेरे गए अक्षरों की नकल, जिसके पहले चिह्‌न को 'ओम्‌' या 'सिद्धम्‌' पढ़ा जाता है। मूल लिपि की नकल के साथ नागरी पाठ भी है, इसके सहारे थोड़े अभ्‍यास से आप भी खजानों का भेद पा सकते हैं।

सभी गुरुजनों का सादर स्मरण, विशेषकर, जिन्होंने अक्षरों की नकल उतारने की बजाय उन्हें लिखना, लिखे को पढ़ना और पढ़े को समझने की, आत्मसात करने की शिक्षा दी। सिखाया कि जो पढ़ो, पसंद आए, वह मुखाग्र और कंठस्थ रहे न रहे, हृदयंगम और आत्मसात हो।

डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर और डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम गुरु-द्वय की उदारता अबाध रही, अपनी संकीर्णता के लिए स्वयं जिम्मेदार हूं, लेकिन गुरुओं के कर्ज (ऋषि-ऋण) का बोझ सदैव ढोना चाहता हूं।

(गुरुओं की मर्यादा का ध्यान हो तो देखिए, अपने ही ब्लॉग पर अपनी एक फोटो, वह भी गुरुओं की आड़ में, चिपकाने के लिए कितनी मशक्कत करनी होती है, वरना पोस्‍ट तो यूं चुटकियों में और फोटो एलबम क्‍या पूरी गैलरी बना दें, अपनी खेती जो ठहरी।)

Friday, December 10, 2010

गढ़ धनोरा

30, 31 दिसम्बर और 1 जनवरी को बस्तर के गढ़ धनोरा गांव में रहा। डेढ़ हजार साल पुराने अवशेषों की खुदाई के साथ यह नये किस्‍म का नया साल है। रायपुर से बस पकड़ कर केसकाल। आगे पांच किलोमीटर के लिए बस स्‍टैंड के दुकान से हाथ घड़ी की जमानत पर सायकिल किराये पर ली और एडेंगा होते पहुंच गए। पुरातत्‍वीय उत्‍खनन में कितनी पुरानी ‘नई-नई’ चीजें निकलती हैं और कैसा रोमांच होता है, अनगढ़ ढंग से भी बताने पर ईर्ष्‍या के पात्र बन सकते हैं, इसलिए न कुछ नया, न पुराना, वह सब जो चिरंतन और शाश्‍वत लग रहा है।

यहां महुए के पेड़ पर लगे लाल गुच्छेदार tubular फूल वाला सहजीवी या परजीवी वानस्पतिक विकास देखा, यह इस क्षेत्र के महुए के पेड़ों पर कांकेर पहुंचते तक देखने को मिला। स्थानीय पटेल करिया पुजारी उर्फ उजियार सिंह गोंड ने इसे 'भगवान का लगाया कलम' natural grafting बताया। पुस्तकों या botanist से इसका सन्दर्भ या जानकारी नहीं ले पाया, किसी ने सुझाया lorenthus, मान लेने में हर्ज क्‍या ॽ मुझे तो पटेल की बात भाई, जिसने यह भी बताया कि महुए के पत्तों पर लगे कीड़े ही इसे लेकर आते हैं। गढ़ धनोरा से केसकाल वापसी के पैदल रास्ते में शमी के पेड़ पर भी ऐसा ही विकास देखा, जो मेरे अनुमान से orchid जाति का था, पुस्तकों में इस partial parasite का नाम mistletoe (banda) मिला।

यहां छिन्द और सल्फी के पेड़ भी बहुतायत से हैं। सल्फी के पत्ते fishtail palm जैसे होते हैं। अक्टूबर से अप्रैल तक इसके पुष्पक्रम के डन्ठल में चीरा लगाकर ताड़ की तरह पेय निकाला जाता है। सल्फी जैसा महत्‍व किसी पेड़ का नहीं यहां, ढेरों किस्‍से और इस पेय के सामने शैम्‍पेन फीका। केसकाल घाटी के ऊपर ही ये पेड़ दिखे। वरिष्‍ठ सहयोगी अधिकारी रायकवार जी ने बताया कि दन्तेवाड़ा तक उगते हैं, उसके आगे दक्षिण में नहीं और उगे तो रस नहीं, रस तो स्‍वाद नहीं।

मुनगा (सइजन) ऐसा स्‍वादिष्‍ट और गूदेदार तो सोचा भी नहीं जा सकता। भेलवां यानि जंगली काजू के पेड़। हम लोगों ने काजू चखना चाहा। स्‍थानीय विशेषज्ञों ने उसकी सभी सावधानी बरती, भूना, पूछा ‘उदलय तो नइं’ – एलर्जी तो नहीं है इससे, हमने कहा खा कर ही पता लगेगा, गनीमत रही। इसी से पक्‍का अमिट काला रंग बनता है। एक पेड़ ‘बोदेल’ देखा, पलाश की तरह पत्‍ते, लेकिन शाखाओं के बदले मोटी लताएं, लोगों ने बताया- मादा पलाश, छप्‍पर छाने के काम आता है।

एक कीड़ा, लम्बाई लगभग 15 सेंटीमीटर, पहले तीलियों का भ्रम हुआ। अपनी पूंछ के केन्द्र के चारों ओर धीर-धीरे घूम रहा था, अतः कुछ देर बाद ध्यान गया, स्थानीय स्कूल में सहयोगी अधिकारी नरेश पाठक जी के साथ देखा।
तलाश करने पर नाम stick (common Indian species- Carausius morosus) मिला, यों यह दुर्लभ माना जाता है।

अलग-अलग मुहल्लों-पारा में बंटे गांव की आबादी 150-200 और पूरा गांव एक कुनबा है। बाहरी कोई नहीं। बाहर से लड़कियां शादी होकर आती हैं या शादी होने पर जाती हैं और गांव के कुछ लोग नौकरी पर बाहर चले गये हैं। गांव के मुखिया करिया पुजारी और उनका लड़का सरपंच है। कोई छोटा-बड़ा या मालिक-नौकर नहीं है, एकदम निश्चित कार्य विभाजन भी नहीं है, सभी सब काम करते हैं, लेन-देन में अदला-बदली है लेकिन 'इस हाथ दे, उस हाथ ले' जैसा नहीं। रात को निमंत्रण नहीं, मात्र सूचना पाकर, चर्चा सुन कर, अगले दिन सुबह लोग उसके घर या खेत पर काम के लिए पहुंच जाते हैं। बारी-बारी सब का काम निपट जाता है। मुखिया को परवाह है, फसल-मवेशी, जंगल-जानवर, बहू-बेटी, रोग-बीमारी, पूजा-पाठ, हम सब की भी। बेटे की सरपंची रहे न रहे, मुखिया की सत्‍ता कौन डिगा सकता है।

शनिवार को रामायण (तुलसी मानस पाठ व भजन) होता है, साहू गुरुजी मदद करते हैं, आरती का चढ़ावा केसकाल पोस्‍ट आफिस में जमा कर दिया जाता है, और उपयोग धार्मिक आयोजन या रामायण पार्टी के सदस्यों के एकमत से सार्वजनिक काम के लिए होता है। अल्‍प बचत, सहकारिता और विभिन्‍न वाद, सिद्धांत यहां जीवन में सहज समोए हैं। सभ्‍य और आधुनिक होने की शान बचाए रखना मुश्किल हो रहा है, इस बियाबान में।

( ... लेकिन फोटो क्‍यों नहीं हैंॽ ''एलिमेन्‍ट्री डॉक्‍टर वॉटसन'', तब मोबाइल-कैमरा नहीं था जी। और यह जनवरी 1990 का, डायरी की आदत बनाने के असफल प्रयास का प्रमाण है। ... यह भी लग रहा है कि जो यादें फ्रेम में बंध जाती, फोटो न होने से चलचित्र की तरह, बार-बार, अलग-अलग ढंग से देख पाता हूं, थोड़ी धुंधली और घुली-मिली ही सही, रंग तो बिना सलेक्‍ट-क्लिक के जितने चाहे मन भर ही लेता है। याद आया कुछ ..., जी, सही फरमाया आपने ..., वी. शांताराम, नवरंग, पहला दृश्‍य।)

Monday, December 6, 2010

खबर-असर

खबरदार, आपके आस-पास खबरी हैं तो आप, आपकी हरकत या ना-हरकत भी खबर बन सकती है, क्योंकि खबरें वहां बनती हैं जहां खबरी हों जैसे पोस्ट वहां बन सकती है जहां ब्लॉगर हो। खबरों के लिए घटना से अधिक जरूरी खबरी हैं और कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्लॉगर की तो पोस्ट अच्छी बनती ही तब है जब कोई मुद्‌दा न हो, वरना 'मीनमेखी' (सुविधानुसार इसे 'गंभीर टिप्पणीकार' पढ़ सकते हैं) पोस्ट को पूर्वग्रह से ग्रस्त अथवा बासी मान लेते हैं।

यह सूक्ति या थम्ब रूल बनाने का प्रयास नहीं, एक सचित्र खबर को पढ़ते हुए लगा कि कोई ब्लॉग पेज तो नहीं देख रहा हूं फिर इसका कैप्‍शन सोचते-सोचते इसकी लंबाई बढ़ गई, बस। पहले यह देखें-

अब सीधे विकल्प पर आइए-

1/ खबर पर ब्लॉग का असर है,
2/ किसी ब्लॉगर की लिखी खबर है,
3/ यह खबर कम ब्लॉग पोस्ट अधिक है,
4/ ब्लॉग पोस्ट और खबर के बीच का फर्क कम हो रहा है।

असमंजस है कि क्या चारों सही या सभी गलत का विकल्प भी दिया जाना चाहिए। अपनी भूमिका भी आप ही चुनें- बिग बी, हॉट सीट या क्विज मास्टर। हां! लेकिन किसी ईनाम-इकराम की गुंजाइश नहीं है, यहां।

यहां किसी ब्लॉगर सम्मेलन के लिए टॉपिक तय करने की कवायद भी नहीं है, यह तो यूं ही, कुछ भी, कहीं भी टाइप है, लेकिन खबरों पर नजर रखने वाले और खबरों की खबर लेने वालों के साथ सभी पहेली-बुझौवलियों को विशेष आमंत्रण।

Thursday, December 2, 2010

दिनेश नाग


'फॅंस गए रे ओबामा' सुनकर एकबारगी लगता है कि अमरीकी राष्‍ट्रपति की पिछले दिनों भारत यात्रा का कोई संदर्भ है, लेकिन ऐसा कतई नहीं। फिल्‍म की कहानी है आर्थिक मंदी की, जिसे अपहरण के साथ लपेट कर, मजेदार ढंग से दिखाया गया है।


फिल्‍म में एक तरफ भारत लौटे अमरीकावासी एनआरआइ ओम शास्‍त्री (नायक रजत कपूर) हैं तो दूसरी तरफ मुम्‍बई अंडरवर्ल्‍ड की रानी फिमेल गब्‍बर सिंह (नायिका नेहा धूपिया) और इन दोनों के बीच है, ओम शास्‍त्री का भांजा कन्‍हैया लाल, यानि हमारा हीरो, छत्‍तीसगढ़ का दिनेश नाग। दिनेश ऐसा अभिनेता है, जिसकी आंखें तो क्‍या चेहरा भी बोलता है।


छत्‍तीसगढ़ को आदिम संस्‍कृति के चर्चित (जनजाति और उनके घोटुल) केन्‍द्र, बस्‍तर और अबुझमाड़ के कारण भी जाना जाता है। अबुझमाड़-ओरछा का मुहाना है अब का जिला मुख्‍यालय नारायणपुर। इसीसे लगा गांव है गढ़ बेंगाल, जो सन 1957 में पूरी दुनिया में जाना गया था दस वर्षीय बालक चेन्‍दरू के साथ। चेन्‍दरू नायक था, अर्न सक्‍सडॉर्फ की स्‍वीडिश फिल्‍म 'एन डीजंगलसागा' ('ए जंगल सागा' या 'ए जंगल टेल' अथवा अंगरेजी शीर्षक 'दि फ्लूट एंड दि एरो') का। फिल्‍म में संगीत पं. रविशंकर का है, उनका नाम तब उजागर हो ही रहा था। सन 1998 में अधेड़ हुए चेन्‍दरू और इस पूरे सिलसिले को नीलिमा और प्रमोद माथुर ने अपनी फिल्‍म 'जंगल ड्रीम्‍स' का विषय बनाया। चेन्‍दरू, इन दिनों अपने गांव में 'गैर-फिल्‍मी' दिनचर्या बसर कर रहा है, किन्‍तु फिल्‍मों का पहला छत्‍तीसगढ़ी सुपर स्‍टार वही है।

नारायणपुर से लगे गांव माहका का निवासी है दिनेश नाग। स्‍कूली शिक्षा रामकृष्ण मिशन, विवेकानन्द विद्यापीठ, नारायणपुर से 2001 में पूरी हुई, आगे की पढ़ाई के लिए दिनेश भिलाई आ गए लेकिन उनका मन रमने लगा नाटकों में। 2004 में रायपुर में राष्‍ट्रीय नाट्य विद्यालय की कार्यशाला हुई। दिनेश की मानों मुराद पूरी हुई। कार्यशाला में उनकी अभिनय प्रतिभा को अमिताभ श्रीवास्तव, विनोद चोपड़ा और विभा मिश्रा ने पहचाना। इसी क्रम में दिनेश को अपनी प्रतिभा निखारने का मौका मिला, भोपाल की कार्यशाला में, जहां उन्‍हें देवेन्द्र राज अंकुर, राजेन्द्र गुप्ता, भानु भारती और रतन थियम जैसे गुरु मिल गए। इसके बाद 2005 में दिनेश ने मुंबई की राह पकड़ ली।


बॉलीवुड के खट्टे (-मीठे की शुरुआत शायद अब हो) अनुभवों के साथ दिनेश इडियट बॉक्स, रन भोला रन और स्‍ट्राइकर फिल्‍मों से जुड़े रहे, लेकिन इनसे उनकी पहचान न बनी।

दिनेश बताते हैं 8 नवम्‍बर को फिल्‍म के म्‍यूजिक रिलीज के अवसर पर उन्‍हें कन्‍हैया लाल के रूप में पहचाना गया इससे उन्‍हें भरोसा है कि 3 दिसम्‍बर को फिल्‍म रिलीज के साथ उनकी पहचान बनने लगेगी, हमारी भी यही कामना है। उनकी आने वाली फिल्‍म कॉल सेंटर पर आधारित 'तीस टका' होगी।

दिनेश नाग का फोन नं. +919867745061 है। इस पोस्‍ट के लिए जानकारी और फोटो का सहयोग अभिषेक झा (फोन नं.- +919424287102) और सोमेश (फोन नं.- +919993294086) से मिला है।



परिशिष्‍टः

रामकृष्‍ण मिशन, विवेकानंद आश्रम, रायपुर के संस्‍थापक प्रातः स्‍मरणीय स्‍वामी आत्‍मानंद जी ने बिलासपुर व अमरकंटक आश्रम सहित नारायणपुर आश्रम, विवेकानंद विद्यापीठ की नींव रखी, जिसके माध्‍यम से अबुझमाड़ इलाके में मुख्‍यतः चिकित्‍सा और शिक्षा की नई अलख जगी। इस यज्ञ में उनके सहयोगी संतोष भैया, देवेन्‍द्र भैया, राजा भैया, शत्रुघ्‍न भैया, सतीश भैया, चटर्जी सर याद आ रहे हैं।

गढ़ बेंगाल, चेन्‍दरू के साथ बेलगुर, पंडी, जैराम द्वय, शंकर द्वय, बुधसिंह, रूपसिंह, सोबराय, मनीराम, पिसाड़ू कचलाम जैसे अनेकों कलाकार-शिल्‍पकारों का सभ्‍य-सुसंस्‍कृत गांव है और यहां किसी सियान को ढुसीर बजाकर घोटुल पाटा और लिंगोपेन की महान गाथा गाते देख-सुन सकते हैं।

नारायणपुर के पास कोई 40 साल पहले सोनपुर के अपने प्रवास के बाद वहां से 30 किलो मीटर दूर कोई 20 साल पहले, घनघोर अंदरूनी इलाके का डेढ़ हजार साल पुराना बौद्ध अवशेषों सहित प्राचीन स्‍थल भोंगापाल का उत्‍खनन कैम्‍प, वहीं बांसडीह, बलिया के सिंह गुरुजी का संग व मार्गदर्शन, खुदाई के साथी चेलिक और मोटियारी के साथ घोटुल संस्‍था को पहली बार करीब से देखने-समझने का अवसर बना।

याद कर रहा हूं, भोंगापाल में स्विस युवा पर्यटक से मुलाकात हुई और फिर सन 1990-91 में रेनॉल्‍ड पेन नया-नया था, जिसके साथ बहुतों की बालपेन से लिखने की आदत बनी और फाउन्‍टेन पेन छूटा। लेकिन पहली खेप के बाद रायपुर के बाजार में इसकी कमी हो गई। नारायणपुर के इतवार बाजार से कैम्‍प के सौदा-सुलुफ के बाद बस स्‍टैंड पर पान की दुकान में रेनॉल्‍ड पेन दिख गया और एक साथ पेन की जोड़ी खरीद लिया।

अब सोचता हूं ''नारायणपुर में रेनॉल्‍ड पेन और भोंगापाल में स्विस युवा'' शीर्षक से उदारीकरण और वैश्‍वीकरण पर महसूस किए, याद रहे, पहले-पहल अनुभवों पर एक पोस्‍ट लिखूं, गल्‍फ-वार के चलते कैम्‍प के लिए किरोसीन और सफर के लिए डीजल संकट से मुकाबले को जोड़कर, जो समाप्‍त हो अंकल सैम के नारे के साथ।

इन सबका साक्षी और कुछ हद तक सहभागी रहने के चलते गौरव अनुभव कर रहा हूं और नक्‍सलवाद की याद अब आई, लेकिन 'बाबू ले बहुरिया गरू झन हो जाय' इसलिए फिलहाल बस इतना ही।

पुनश्‍चः 5 दिसंबर को ''आज की जनधारा'' समाचार पत्र ने स्‍तंभ 'ब्‍लॉग कोना' में इस पोस्‍ट को साभार प्रकाशित किया है।

Friday, November 26, 2010

छत्तीसगढ़ की कथा-कहानी

दो पुस्तिकाओं 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' तथा 'छत्तीसगढ़ की लोक कहानियां' का जिक्र है। मैंने जिन प्रतियों को देखा, वे हैं-

प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तिका में, तिथि सितम्बर 1992 तथा आईएसबीएन : 81-230-0004-9 अंकित है। 28 पृष्ठों की पुस्तिका में 7 कहानियां हैं। प्रकाशकीय वक्तव्य है कि ''...भारत के विभिन्न प्रांतों की लोक कथाएं प्रकाशित करने के साथ-साथ विश्व की लोक कथाएं भी प्रकाशित की हैं। इसी क्रम में 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' प्रस्तुत हैं। इसके लेखक हैं श्री गोपाल चन्द्र अग्रवाल।''

पुस्तिका के शीर्षक से अनुमान तो यही होता है कि संकलित कहानियां छत्तीसगढ़ में प्रचलित, सुनी-सुनाई जाने वाली लोक कथाएं हैं। प्रकाशकीय में लोक कथाओं को संग्रहीत और प्रकाशित करने का भी उल्‍लेख है, लेकिन छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं, शीर्षक वाली पुस्तिका की इस प्रस्तुति में यही प्रक्रिया अपनाई गई है, ऐसा स्‍पष्‍ट नहीं है। बरबस ध्‍यान जाता है कि यहां श्री गोपाल चन्द्र अग्रवाल को सम्पादक या संकलनकर्ता नहीं बल्कि 'लेखक' बताया गया है। 'लोक कथाएं, पारम्परिक होती हैं, इनका ज्ञात-निश्चित कोई एक लेखक नहीं होता' इस स्थापना को स्वीकार कर लेने पर बात गड्‌ड- मड्‌ड होने लगती है।

आगे बढ़े- डायमंड बुक्स, नई दिल्ली से प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ की कहानियां' पुस्तिका में संस्करण 2006 तथा आईएसबीएन : 81-288-1290-4 अंकित है। 24 पृष्ठों की इस पुस्तिका में 5 कहानियां हैं। लेखक के स्थान पर अर्पणा आनंद का नाम है।

इस पुस्तिका की 'होशियार चूहा' और 'लालची बंदर' शीर्षक सहित पूरी कहानी 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' की हैं। 'लालची बंदर' के एक-दो वाक्य छत्तीसगढ़ी के हैं और एक हिस्सा छत्तीसगढ़ की 'हांथी-कोल्हिया-महादेव' वाली लोक कथा के 'मएन के डोकरी' (जैसे मैडम तुसाद संग्रहालय में मूर्त कलाकृतियां), प्रसंग से मेल खाता है। 'छत्तीसगढ़ की लोक कथाएं' में 'सात भाइयों की एक बहन' कहानी के दो छोटे पद्य-खंड छत्तीसगढ़ी के हैं।

इस विवरण और टीप के साथ स्वीकारोक्ति कि मैं जन्मना और मनसा छत्तीसगढ़ी, शायद रुचि के कारण लेकिन आकस्मिक ही दोनों पुस्तिकाएं देख पाया। इनमें से किसी भी कहानी को इस अंचल की कहानी के रूप में नहीं सुना है और उपरोक्त के अलावा दोनों पुस्तिकाओं का कोई हिस्सा मेरे परिचित छत्तीसगढ़ से मेल नहीं खाता। काफी खंगालने के बाद भी श्री गोपाल चन्द्र अग्रवाल अथवा अर्पणा आनंद का नाम, छत्तीसगढ़ की कथा-कहानी के परिप्रेक्ष्य में कहीं और नहीं तलाश सका। इन दोनों ने किसी पूर्व संकलनों को आधार बनाया है या सामग्री का संकलन स्वयं (कब और कहां ?) किया है, यह भी पता नहीं चलता। फिर भी कैसे कह दूं कि ये छत्तीसगढ़ की कहानियां नहीं है, लेकिन यह कैसे मानूं कि ये छत्तीसगढ़ की कथा-कहानी है।

पुनश्‍चः 

किसी हितैषी ने फोन पर कहा, इस बार कोई टीप, तफसील नहीं, कहां रह गया पुछल्‍ला सो ये है तुर्रा। छत्‍तीसगढ़ी कहानियां आमतौर पर शुरू होती हैं-
कथा कहंव मैं कंथली
जरै पेट के अंतली
खाड़ खड़ाखड़ रुख
मछरी मरय पियासन
मंगर चढ़य रुख
चार गोड़ के मिरगा मरय
कोई खाता न पीता
और पूरी होती हैं, इस तरह- 
दार भात चुर गे, मोर किस्‍सा पुर गे।

Tuesday, November 16, 2010

माधवराव सप्रे

माधवराव सप्रे 
19.06.1871-23.04.1926
'एक टोकरी भर मिट्टी' हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मान्य किए जाने से हिन्दी साहित्य में पं. माधवराव सप्रे का विशिष्ट स्थान बन गया, लेकिन इसके चलते वर्तमान पीढ़ी में सप्रे जी की पहचान 'हिन्दी की पहली कहानी वाले' के रूप में सीमित हो गई, इसके लिए यह पीढ़ी नहीं, परिस्थितियां जिम्मेदार हैं, क्योंकि सप्रे जी की रचनाएं कुछ शोधार्थियों और खास लोगों की पहुंच तक सिमट गई थी।

पिछले दिनों देवी प्रसाद वर्मा 'बच्‍चू जांजगीरी' (फोन-07715060769) द्वारा संपादित, 'माधवराव सप्रे, चुनी हुई रचनाएं' प्रकाशित हुई, इसलिए यह उपयुक्त अवसर है कि सप्रे जी की रचनाओं के माध्यम से उस व्यक्ति का पुनरावलोकन हो, ताकि आजादी के दीवाने इस कलमकार की जाने-अनजाने सीमित हो गई पहचान से अलग, उनकी वृहत्तर प्रतिभा का आकलन कर, उससे प्रेरणा ली जा सके।

साढ़े तीन सौ पृष्ठ के इस ग्रंथ के मुख्‍य चार खंड हैं, जिनमें दो में सप्रे जी की पुस्तकें- 'स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट' तथा 'जीवन संग्राम में विजय प्राप्ति के कुछ उपाय' हैं, शेष दो ऐतिहासिक समालोचना और कहानियां हैं, जैसा शीर्षक से स्पष्ट है, ये सप्रे जी के कृतित्व की चुनी हुई रचनाएं हैं, किंतु यह सार्थक चयन, सप्रे जी के सृजन संसार और उनके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करने में सक्षम है, विद्यानिवास मिश्र द्वारा लिखी भूमिका के साथ-साथ सम्पादक ने सप्रे जी की जीवनी भी प्रस्तुत की है।

द्वितीय खंड में जीवन संग्राम...., आत्म विकास और चरित्र निर्माण की प्रेरक पुस्तक है। पुस्तक का निहित लक्ष्य, स्वतंत्रता संग्राम में विजय प्राप्ति के लिए पूरी पीढ़ी को तैयार करने का झलकता है। प्रथम तीन अध्यायों के बाद, स्वावलंबन अध्याय का आरंभ, मानस की प्रसिद्ध पंक्ति 'पराधीन सपनेहुं सुख नाही' से किया गया है। पूरी पुस्तक में आदर्श, सच्चरित्रता, नैतिकता, राष्ट्रीयता और विनम्र दृढ़ता की सीख, सप्रे जी के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित कर उनकी लेखकीय सिद्धहस्तता को भी उजागर करती है। एक अन्‍य उल्‍लेख - उन्होंने फरवरी 1901 में 'ढोरों का इलाज' पुस्तक के लिए लिखा कि ''जो कुछ हमने इस पुस्तक के विषय में लिखा है, सो क्या है! महाशय, वह ठीक समालोचना नहीं है। आप चाहें तो उसे एक प्रकार का विज्ञापन कह सकते हैं।'' ऐसी पारदर्शी साहसिकता का नमूना पत्रकारिता में मिल सकता है, विश्वास नहीं होता।

ग्रंथ का सर्वाधिक महत्वपूर्ण खंड 'स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट' है। लगभग पूरी सदी के बाद भी इस पुस्तक की प्रासंगिकता और प्रभाव कम नहीं है, किसी समाज के प्रति उपनिवेशवादी दुरभिसंधिपूर्ण महिमामंडन और खोखले नारे प्रचारित कर किस प्रकार उसे दमन का साधन बनाया जाता है, यह सप्रे जी ने 'भारत एक कृषि प्रधान देश है' नारे में देखा है, जिस महिमामंडन को धीरे से फतवे जैसा इस्तेमाल कर इस देश के परम्परागत शिल्प, तकनीक, कला और व्यवसाय को नष्ट किया गया (आज भी छत्तीसगढ़ को 'धान का कटोरा' स्थापित कर दिए जाने जैसी स्थितियों से यह खतरा बना हुआ है) यही स्थिति जुलाहे-बुनकरों के साथ है, जिनकी तत्कालीन समस्याओं से निर्मित स्थिति के कारण यह 'बायकॉट' लिखी गई, लेखन का अद्‌भुत कौशल भी इस रचना में दिखता है, आज भी रोमांच पैदा कर देने वाली शैली की एक विशेषता यह भी है, कि स्वदेशी और बायकॉट को लेकर लिखे पचास पृष्ठों में दुहराव की वजह से नीरस एकरसता नहीं बल्कि उद्‌देश्य के प्रति दृढ़ता बढ़ती जाती है। सप्रे जी की इस रचना में उनके व्यक्तित्व में गांधीवादी संयत जिद, आत्म अनुशासन की कठोरता के साथ संतुलित उत्तेजना कितनी तीक्ष्ण हो सकती है, महसूस किया जा सकता है।

सप्रे जी के व्यक्तित्व का सामाजिक सरोकार इतना गहरा है कि वे घोषणा करते हैं ''मुझे मोक्ष प्यारा नहीं, मैं फिर से जन्म लूंगा'' पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सप्रे जी के जीवन्त और उष्म स्पन्दन का एहसास होने लगता है। ऐसी प्रासंगिक कृति का लगातार प्रचलन में न रहने का अफसोस है, तो इस स्वागतेय प्रकाशन की उपलब्धता ही स्वयं में रोमांचकारी है।

टीप :

मार्च 1999 में श्री रमेश नैयर जी (फोन-9425202336) दैनिक भास्कर, रायपुर के अपने कार्यालय में बता रहे थे- जनवरी 1900 में छत्तीसगढ़ के पेन्ड्रारोड से प्रकाशित होने वाली हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के बारे में। पं. माधवराव सप्रे जी की इस पत्रिका के अप्रैल 1901 के अंक में 'एक टोकरी भर मिट्‌टी' छपी थी, पत्रिका का मुद्रण रायपुर के कय्यूमी प्रेस, जो आज भी कायम है, से आरंभ हुआ। इस पत्रिका और कहानी के साथ नैयर जी ने बायकॉट की चर्चा की। मैंने कहा कि बायकॉट का नाम ही सुनने-पढ़ने को मिलता है, पुस्तक तो मिलती नहीं, इस पर उन्‍होंने तपाक से यह किताब निकाल कर न सिर्फ दिखाई, पढ़ने को भी दे दी। वापस लौटाते हुए छोटा सा नोट उन्हें सौंपा, जो उस दौरान दैनिक भास्कर और नवभारत समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ। लगभग जस का तस यहां पोस्ट बना कर बिना दिन-वार का ध्यान किए लगा रहा हूं। यह मान कर कि नित्य स्मरणीय सप्रे जी की चर्चा के लिए तिथि-प्रसंग आवश्यक नहीं।

इस बीच पं. माधवराव सप्रे साहित्य-शोध केन्द्र, रायपुर (फोन-9329102086 / 9826458234) के प्रयासों से सप्रे साहित्य पुनः प्रकाशित हो रहा है, लेकिन इसमें कितनों की रुचि है, कौन पढ़ रहा है, मालूम नहीं ? कभी लगता है कि 'दांत हे त चना नइ, चना हे त दांत नइ।

Friday, November 12, 2010

नाग पंचमी

कक्षा-4, पाठ-18

सूरज के आते भोर हुआ, लाठी लेझिम का शोर हुआ।
यह नागपंचमी झम्मक-झम,यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम।
मल्लों की जब टोली निकली, यह चर्चा फैली गली-गली।
दंगल हो रहा अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

सुन समाचार दुनिया धाई, थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का, यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में, लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए,अटपट चलते उद्भट आए
उतरेंगे आज अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे गौर सलोने रंग लिये, अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से, मूछों पर ताव जमाते से।
मस्ती का मान घटाते-से अलबेले भाव जगाते-से।
वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष, वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष।
जब मांसपेशियां बल खातीं, तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

तालें ठोकीं, हुंकार उठी अजगर जैसी फुंकार उठी।
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल दो बबर शेर जुट गए सबल।
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था भिड़ता बांके से बांका था ।
यों बल से बल था टकराता था लगता दांव, उखड़ जाता।
जब मारा कलाजंघ कस कर सब दंग, कि वह निकला बच कर। 
बगली उसने मारी डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
दो उतरे मल्ल अखाड़े में चंदन चाचा के बाड़े में॥

यह कुश्ती एक अजब रंग की, यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर, ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर, वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी, बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में, चंदन चाचा के बाड़े में॥

पहलवान, कक्षा-3, पाठ-17

इधर उधर जहां कहीं, दिखी जगह चले वहीं।
कमीज को उतार कर, पचास दंड मारकर।
अजी उठे अजब शान है, अरे ये पहलवान है।

सफ़ेद लाल या हरा, लंगोट कस झुके ज़रा
अजब की आन बान है, अरे ये पहलवान हैं

कक्षा-4, पाठ-25 (आखिरी पाठ)

लल्ला तू बाहर जा न कहीं
तू खेल यहीं रमना न कहीं
डायन लख पाएगी
लाड़ले नजर लग जाएगी
अम्मां ये नभ के तारे हैं
किस मां के राजदुलारे हैं
ये बिल्कुल खड़े उघारे हैं
क्या इनको नजर नहीं लगती
बेटा डायन है क्रूर बहुत
लेकिन तारे हैं दूर बहुत
सो इनको नजर नहीं लगती।

कक्षा-4, पाठ-14

मैं अभी गया था जबलपुर, सब जिसे जानते दूर-दूर।
इस जबलपुर से कुछ हटकर, है भेड़ाघाट बना सुंदर।
नर्मदा जहां गिरती अपार, वह जगह कहाती धुंआधार।
कल कल छल छल, यूं धुंआधार में बहता जल।

तफसील :

पुरानी पोस्ट देखते-दुहराते लगा कि नागपंचमी और बालभारती पर एक बार लौटा जाए। मेरी पोस्ट बालभारती पर टिप्पणी करते हुए रवि रतलामी जी ने 'नागपंचमी' का जिक्र किया था। अतुल शर्मा जी की टिप्पणी में और आगे बढ़ने का संदेश था, उन्होंने नागपंचमी शीर्षक से स्वयं भी पोस्ट लिखी है, जिसमें नागपंचमी कविता संबंधी, विष्णु बैरागी जी और यूनुस जी का लिंक भी दिया है। इस सिलसिले को यहां आगे बढ़ा रहा हूं। पहलवान वाली एक कविता भी लगा रहा हूं, जो कई बार नागपंचमी के साथ गड्‌ड- मड्‌ड होती है।

हां ! बताता चलूं कि बालभारती पोस्ट से ऐसी प्रतिष्ठा बनी कि फोन आते रहे और लोग अपनी याद ताजा करते रहे। इस बीच एक परिचित को जबलपुर जाना था और शायद कुछ भाषण देना था। देर रात फोन आया, जबलपुर कविता ... जल्दी...। मैंने एकाध पंक्तियां, जो याद थीं, दुहराईं। उन्होंने कहा और भेड़ाघाट ..., तब मैंने उनसे वक्त लिया और दूसरे दिन फोन कर उनकी फरमाइश पूरी की। इस सब के साथ लल्ला कविता वाला एक और प्रिय पाठ याद आया, इसलिए वह भी यहां है।

रवीन्‍द्र सिसौदिया
अब आएं राज की बात पर। आपका परिचय कराऊं रवीन्द्र सिसौदिया जी से, जिनकी याददाश्त के बदौलत यह पोस्ट बनी है। वैसे मुझे अपनी स्मृति पर भी भरोसा कम नहीं, लेकिन वह उस माशूका जैसी है, जो साथ कम और दगा ज्यादा देती है, फिर भी होती प्रिय है।

मैं बात कर रहा था राज की। अगर आपको नौबत आए 'फोन अ फ्रेन्ड ...' ये करोड़पति बीच में आ ही जाता है, आजकल। धन्य हैं केबीसी और फेसबुक, जिन्होंने सब रिश्ते समेट कर पूरी दुनिया को मैत्री के सूत्र में बांधने का मानों जिम्मा ले रखा है। केबीसी की महिला प्रतिभागी के फ्रेन्ड, उनके ससुर को फोन किया जाता है या फेसबुक, जिस पर 8 साल का भतीजा सवाल कर रहा है, मुझे उसकी मैत्री, फ्रेन्डशिप स्वीकार है। यह रिश्ते को घोलने का आग्रह है या संपर्क सूत्र जोड़ने का, उस बच्चे से तो पूछ नहीं सकता। वैसे चाचा, ताऊ, मामा, फूफा, अपरिचित (जिसे बन्दा न कह सकें) सब 'अंकल' में पहले ही घुल चुके हैं, अब भाई-भतीजे घुलकर, पीढ़ियां फ्रेन्ड बन जाएं, उनमें मैत्री स्थापित हो जाए तो हर्ज क्या, लेकिन इस भाईचारा और जनरेशन गैप में घाल-मेल न हो, बस। (क्या करें, वय वानप्रस्थ दृष्टि वाली मेरी पीढ़ी, चिंता करने के लिए कोई न कोई मुद्‌दा खोज ही लेती है।)

बार-बार पटरी बदलते अब आ गया टर्मिनल, बस आखिरी पंक्ति। आपको ऐसी किसी जानकारी की जरूरत आन पड़े तो आजमा कर देखें बिना गूगलिंग हमारे गंवई गूगल सर्च, रवीन्द्र सिसौदिया जी को, रिश्ते में पितामह, इस फ्रेन्ड का फोन नं. +919406393377 है।

पुनश्च-
आशुतोष वर्मा जी ने जानकारी दी है कि जबलपुर के कवि, नर्मदा प्रसाद खरे (उनके नानाजी) ने 1950 के दशक मे यह कविता लिखी थी। इस कविता को सबसे पहले 1960 के दशक में मध्यप्रदेश की प्राथमिक शिक्षा के लिए कक्षा 4 की बाल भारती में शामिल किया गया था। 

Monday, November 8, 2010

रेलगाड़ी

आगरा स्‍टेशन। पिछले दिनों उत्‍कल एक्‍सप्रेस से सफर में विदेशी नजारा देख रहे थे और फोटू पर फोटू खींचे या उतारे जा रहे थे। हम उड़न तश्‍तरी की तरह (लेकिन हाइवे पर नहीं पलेटफारम पर) नजारे का नजारा देख रहे थे। माजरा कुछ समझ में नहीं आ रहा था हमारे। हम सोच रहे थे कि किस देश के अनाड़ी हैं, क्‍या इनके देश में रेलगाड़ी नहीं होती। फिर लगा सोचना समझना बाद में घर पहुंचकर कर लेंगे, अभी तो अनुकरण पद्धति अपनाते हुए हम भी चमका दें, अपना भी तो है, भारी-भरकम न सही, मोबाइल वाला। घर आकर भूल गए कि कब क्‍या जमा कर लिया है। मोबाइल की गैलरी में फोटो देखते हुए समझ में नहीं आया तो स्‍क्रीन पर बड़ा करके देखा। पहले फोटू में तो भजिया-पकौड़ी का मिरची और केचप सहित कुछ मामला दिखा। कैद की तरह सलाखों से हाथ बाहर निकल रहे हैं। ये खिड़की ... ओह ... शीशा निकल गया है, तो अब टॉयलेट काम का तो रहा नहीं, चलो, लोगों ने बेकार नहीं छोड़ा, काम में ले लिया, अपने लिए जगह बना ली।

दूसरे चित्र में भी कुछ यही चल रहा है, लेकिन यहां बंदूक वाले खाकी वरदी की भी दखल है, याद आया वह भी कुछ लेन-देन कर रहा था, शायद भजिया या कुछ और पता नहीं, लेकिन फोटो में दाहिने खाकी वरदी में उसके जिस सहयोगी की झलक है, वह पहले भोक्‍ता को टकटकी लगाए दृष्‍टा की तरह सारे कार्य-व्‍यापार पर नजर रखे है। 'द्वा सुपर्णा ... ' चलिए, चलिए बहुत हो गया, आपको आंखों देखी बताने के चक्‍कर में हमारी ट्रेन न छूट जाए। लेकिन ये फिरंगी बेकार में कैमरा क्‍यों चमकाते हैं जी, आप ही बताइये।

इसी सफर के एक फेरे में हमराही थे, कोलकाता मुख्‍यालय वाले 'भारत सेवाश्रम संघ' के 80 पार कर चुके स्‍वामी जी। बच्‍चों सी कोमल-चपलता लेकिन सजग, मोबाइल पर फोन सुनते, भक्‍तों सहित सहयात्रियों का लगातार ख्‍याल रखते हुए। रेलगाड़ी के एसी डिब्‍बे में उनके असबाब में हाथ-पंखा, बाने के साथ उनका अभिन्‍न हिस्‍सा लगता था, आप भी देखिए फोटू में ऐसा लगता है क्‍या।

पुछल्‍लाः

पत्रकारनुमा एक ब्‍लॉगर मित्र का कहना था कि क्‍या गरिष्‍ठ पोस्‍ट लगाते रहते हो, कुछ तो हो पढ़ने लायक। फिर उदारतापूर्वक उन्‍होंने समझाया कि ''कहीं जाते-आते हो, राह चलते मोबाइल का कैमरा चटकाते रहो, घर पर आराम से बैठ कर सब फाटुओं को देखो, एक से एक बढि़या पोस्‍ट बनेगी। अरे हमारे साथी तो इस टेकनीक से एक्‍सक्‍लूसिव खबरें बना लेते हैं, पोस्‍ट क्‍या चीज है।'' मित्र, निरपेक्ष किस्‍म के सर्व-शुभचिंतक हैं, उन पर भरोसा भी है, इसलिए उनके सुझाव और टेकनीक का पालन करते हुए यह पोस्‍ट-जैसा तैयार किया है। हे मित्र ! यह आपको समर्पित करते हुए निवेदन कि आपके निर्देशनुमा सुझाव का उचित पालन हुआ हो तो टिप्‍पणी में आकर कृपया इसे स्‍वीकार करें।

(रश्मि रविजा जी का मेल है 14 नवम्‍बर, बाल दिवस के लिए संस्‍मरण लिख भेजने का, इसीसे शायद वह भी सध जाए।)

Sunday, October 31, 2010

छत्तीसगढ़ राज्य

ठाकुर रामकृष्‍ण सिंह 
 छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के इतिहास और पृष्ठभूमि की तलाश में जितनी सामग्री मेरे देखने में आई उनमें लगभग सभी, संस्मरण, श्रेय और दावों के अधिक करीब हैं। स्रोतों-दस्तावेजों के आधार पर तैयार इतिहास की अपनी कमियां हो सकती हैं, लेकिन जड़ और जमीन के लिए यह आवश्यक है। इस दृष्टि से अग्रदूत समाचार पत्र के 30 नवम्बर 1955 अंक में अंतिम पृष्ठ-8 का मसौदा, जिसमें ''गोंडवाना प्रान्त की मांग क्यों ?'' शीर्षक के साथ परिचय है कि ''एस.आर.सी. की रिपोर्ट पर हमारी विधान सभा ने पिछले सप्ताह विचार-विमर्श किया। कुछ सदस्य एक 'गोंडवाना प्रान्त' की मांग कर रहे हैं। ठाकुर रामकृष्णसिंह एम.एल.ए. ने इस मांग के समर्थन में विधान-सभा में जो विचार व्यक्त किए हैं, वे पठनीय है।'' उक्त का अंश इस प्रकार है-



अध्यक्ष महोदय इस सदन में आज चार-पांच रोज से जो भाषावार प्रान्त के हिमायती हैं उन्होंने भाषण दिए। उससे यह स्पष्ट हो गया कि एक ही भाषा के बोलने वाले एक ही भाषा के बड़े प्रान्त में नहीं रहना चाहते। आयोग ने या हाई कमान्ड ने जो इस बात की कोशिश की कि एक भाषा के लोग एक ही प्रान्त में रहें तो इसका भी विरोध इसी सदन में आज  5 दिनों से हम देख रहे हैं। मराठी भाषा बोलने वाले लोग ही संयुक्त महाराष्ट्र में रहना नहीं चाहते। वे अपना अलग प्रान्त बनाना चाहते हैं। उनके भाषण में एक दूसरे के प्रति कटु भाव थे। इससे मुझे भास होता है कि जब एक भाषा के बोलने वाले आपस में एक दूसरे के प्रति इतनी कटु भावना रख सकते हैं तो वे दूसरी भाषा बोलने वाले के प्रति कैसी भावना रखेंगे। इन सब कारणों के अध्यक्ष महोदय, मैं एक भाषा के एक प्रान्त बनाने की योजना का विरोध करता हूं।

दूसरी बात जो श्री जोहन ने हमारे मुख्‍यमंत्री जी के प्रस्ताव में संशोधन रखा है उसका मैं समर्थन करता हूं। इस संबंध में अभी पहले हमारे एक उपमंत्री जी ने बहुत सुन्दर ढंग से ऐतिहासिक भूमिका दी है और वह इतनी यथेष्ठ है कि उसको मैं दोहराना नहीं चाहता। हम लोग जो गोंडवाना के समर्थक हैं वे यह चाहते हैं कि हमारा एक ऐसा कम्पोजिट प्रदेश बने जिनमें वे मराठी भाषी जो आज 95 वर्ष से हमारे साथ रहते आये हैं वे भी साथ रहें और अभी तक जिस प्रकार प्रेमपूर्वक रहते आये हैं उसी प्रकार रहें।

अध्यक्ष महोदय, मैं प्रस्तावित मध्यपेद्रश का इसलिये विरोध करता हूं कि वह इतना अन-बोल्डी है कि उसमें एडमिनिस्ट्रटिव कनवानिअन्स बिलकुल नहीं रहेगा। अध्यक्ष महोदय, मध्यभारत, भोपाल और विन्ध्य-प्रदेश का महाकोशल प्रदेश से कभी भी शासकीय संबंध नहीं रहा है। पर्वत जंगल तथा अन्य कठिनाइयों के कारण आपस में आवागमन के लिए जो रेल और सड़क बनाने की सुविधा होनी चाहिए या इनको एक स्टेट के एडमिनिस्ट्रेशन में लाने के लिए जो सुविधा होनी चाहिये वह सुविधा बिलकुल नहीं है। आपने, अध्यक्ष महोदय, इस बात पर भी गौर किया होगा कि हमारे बस्तर से मध्यभारत की कितनी दूरी है। 800 से एक हजार मील की दूरी होती है। ऐसे प्रदेश में बस्तर जैसे पिछड़े प्रदेश में रहने वाला व्यक्ति कैसे सुखी रह सकता है यह सोचने की बात है।

दूसरी बात यह है कि हमारा छत्तीसगढ़, जो कि देश को बहुत ही पिछड़ा हुआ भाग है, इस बड़े प्रदेश में कभी पनप नहीं सकता। इसकी जो तरक्की होनी चाहिये इसकी तरफ से जो ध्यान देना चाहिये वह कभी भी प्रस्तावित मध्यप्रदेश के शासन में नहीं हो सकता। अध्यक्ष महोदय, आपने देखा होगा कि राजधानी के प्रश्न पर भोपाल, सागर, इटारसी और सबसे मुख्‍य जबलपुर की चर्चा होती रही पर किसी ने भी यह गौर नहीं किया कि हमारे बस्तर से या छत्तीसगढ़ से ये स्थान कितनी दूरी पर हैं। मैंने इस संबंध में इतने भाषण सुने पर किसी ने भी छत्तीसगढ़ का जिक्र नहीं किया। यह नहीं सोचा गया कि इन स्थानों से छत्तीसगढ़ कितनी दूर हो जावेगा।

हालांकि अध्यक्ष महोदय, मैंने अभी प्रस्तावित मध्यप्रदेश का विरोध किया है मगर जो होना है वह तो होकर रहेगा इसलिये इस सिलसिले में मैं यहां एक बात रिकार्ड करा देना चाहता हूं कि चाहे राजधानी भोपाल हो या सागर हो या जबलपुर हो पर उसमें हमारे छत्तीसगढ़ के हित का ध्यान रखा जाना चाहिये और वह यह है कि इसमें रायपुर शहर को उप-राजधानी बनाया जावे। रायपुर शहर छत्तीसगढ़ का हृदय है और छत्तीसगढ़ के सभी स्थानों से बराबर दूरी पर है। आज के हमारे मध्यप्रदेश की राजधानी नागपुर थी फिर गवर्नमेंट बराबर जबलपुर को उप-राजधानी मानती चली आ रही है इसलिये हम चाहते हैं कि सिर्फ सिर और चेहरे को ही न देखा जावे। इन्दौर, भोपाल और जबलपुर तो बड़े बड़े शहर हैं वे आकर्षण के केन्द्र हो सकते हैं। पर केवल चेहरे को ही न देखा जावे। हम दूर में जो गरीब लोग इस छत्तीसगढ़ में रहेंगे उनके ऊपर भी यथोचित ध्यान दिया जाना चाहिये इसलिए मेरा निवेदन है कि नवीन मध्यप्रदेश में रायपुर को उप-राजधानी बनाया जावे। यहां जो गरीब लोग रहे हैं उनमें पोलिटिकल जाग्रति नहीं है इसका प्रमाण है कि 82 सदस्यों में से किसी ने भी राजधानी के प्रश्न पर यह नहीं कहा कि रायपुर को उप-राजधानी बनाया जावे। इससे पता चलता है कि ये लोग कितने बैकवर्ड हैं। इसलिये मैं चाहता हूं कि प्रस्तावित मध्यप्रदेश का यदि निर्माण होता है तो रायपुर को उप-राजधानी बनाने के अलावा हाईकोर्ट, बेन्च, रेवन्यू बोर्ड बेन्च और दीगर फेसिलटीज जो होती हैं वे दी जावें। अध्यक्ष महोदय, मैं इन शब्दों के साथ गोंडवाना प्रान्त की मांग का समर्थन करता हूं।

डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह

उक्त अंश के साथ प्रासंगिक तथ्य है कि छत्‍तीसगढ़ में 20वीं सदी के चौथे दशक में मानव विज्ञान के क्षेत्र में हुए अध्ययन का परिणाम सन 1944 में ''द गोंडवाना एण्ड द गोंड्स'' पुस्तक के रूप में सामने आया। क्षेत्रीय अस्मिता को अकादमिक पृष्ठभूमि के साथ रेखांकित करने का यह गंभीर प्रयास डॉ. इन्द्रजीत सिंह (1906-1952) द्वारा किया गया, जो तत्कालीन सीपी एण्ड बरार के पहले मानवशास्त्री हैं।

छत्तीसगढ़ राज्य गठन की 10वीं वर्षगांठ पर राज्य निर्माताओं का नमन।

Monday, October 25, 2010

छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍म

मनु नायक
छत्‍तीसगढ़ी की पहली फिल्‍म, अप्रैल 1965 में रिलीज मनु नायक की 'कहि देबे संदेस' थी, इसी दौर में विजय पांडे-निरंजन तिवारी की 'घर द्वार' भी बनी। वैसे सन 1953 में आई फिल्मिस्‍तान की 'नदिया के पार' के आरंभिक दृश्‍यों में मल्‍लाहों के किशोर साहू लिखित संवाद में छत्‍तीसगढ़ी पुट है। इस पृष्‍ठभूमि और इतिहास के साथ छत्‍तीसगढ़ के फिल्‍मोद्योग, जिसे रालीवुड फिर छालीवुड कहा जा रहा है, का सही मायनों में सिलसिलेवार आरंभ, छत्‍तीसगढ़ राज्‍य गठन 1 नवंबर 2000 के हफ्ते भर पहले आई फिल्‍म मोर छइंहा भुंइया' से हुआ। इस दशक की बात करें तो अजीब जान पड़ता है कि छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों की सूची के लिए काफी मशक्‍कत करनी पड़ती है और फिर भी फिल्‍म संबंधी तथ्‍य को लेकर भ्रम बना रहता है। मैंने एक पोस्‍ट में छत्तीसगढ़ी फिल्मों और गीतों पर गंभीर, अधिकृत अध्ययन किए जाने की बात लिखी है। छत्‍तीसगढ़ी गीतों पर किसी अनाम ब्‍लॉगर ने 'छत्‍तीसगढ़ी गीत संगी' आरंभ किया, लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों के लिए लगा कि सुझाव जैसी यह गुहार अनसुनी रही, इसलिए आधा-अधूरा ही सही, शुरू कर देना जरूरी लगा, सो अंग्रेजी अकरादिक्रम में अब तक रिलीज छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों की सूची -

01 अब मोर पारी हे, 02 अंगना, 03 ए मोर बांटा, 04 बैर, 05 बंधना, 06 बनिहार, 07 भांवर, 08भुंइया के भगवान, 09 भोला छत्तीसगढ़िया, 10 छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया,
 11 छत्तीसगढ़ महतारी, 12 गजब दिन भइगे, 13 घर द्वार, 14 गुरांवट, 15 जय मां बम्लेश्वरी, 16 जय महामाया, 17 झन भूलौ मां बाप ला, 18 कहि देबे संदेश, 19 कंगला होगीस मालामाल, 20 कारी,
 21 किसान मितान, 22 लेड़गा नं 1, 23 महूं दीवाना तहूं दीवानी, 24 मया, 25 मया देदे मया लेले, 26 मया देदे मयारू, 27 मया होगे रे, 28 मया के बरखा, 29 मयारू भौजी, 30 मोंगरा,
 31 मोर छइंहा भुंइया, 32 मोर धरती मईया, 33 मोर गवंई गांव, 34 मोर संग चलव, 35 मोर संग चल मितवा, 36 मोर सपना के राजा, 37 नैना, 38 परसुराम, 39 परदेशी के मया, 40 प्रीत के जंग,

41 रघुबीर, 42 संगवारी, 43 तीजा के लुगरा, 44 तोर आंचल के छइयां तले, 45 तोर मया के मारे, 46 तोर मया मा जादू हे, 47 तोर संग जीना संगी तोर संग मरना, 48 तुलसी चौरा, 49 टुरा रिक्शावाला, 50 टुरी नं 1.

इसके साथ कुछ ऐसे नाम भी मिले, जिनके लिए बताया गया कि इनमें वीडियो फिल्‍म/ बिना सेंसर सर्टिफिकेट की/ डब की गई हैं, ये नाम हैं -
01 अनाड़ी संगवारी, 02 चंदन बाबू, 03 हर हर महादेव, 04 लेड़गा ममा, 05 लोरिक चंदा, 06 मन के बंधना, 07 मया मा फूल मया मा कांटे, 08 माटी मोर म‍हतारी, 09 पुन्‍नी के चंदा, 10 सीता, 11 संग म जीबो संग म मरबो, 12 मोर सैंया



छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों के निर्माता - मनु नायक, विजय पान्‍डे, शिवदयाल जैन, प्रेम चन्‍द्राकर, राकी दासवानी, अलक राय, मोहन सुन्‍दरानी, मधुकर कदम, दुष्‍यंत राणा, मनोज वर्मा, क्षमा‍निधि मिश्रा, संतोष जैन, रूपाली-संदीप तिड़के, संतोष सारथी, निर्देशक - निरंजन तिवारी, सतीश जैन, प्रेम चन्‍द्राकर, क्षमानिधि मिश्रा, मनोज वर्मा, डॉ. पुनीत सोनकर, असीम बागची, मनु नायक। संगीत - मलय चक्रवर्ती, कल्‍याण सेन, सुनील सोनी, दुष्‍यंत हरमुख, भूपेन्‍द्र साहू, गीत - हनुमंत नायडू, हरि ठाकुर, लक्ष्‍मण मस्‍तुरिया, राकेश तिवारी, कुबेर गीतपरिहा, प्रीतम पहाड़ी, कैलाश मांडले, रामेश्‍वर वैष्‍णव, गिरवरदास मानिकपुरी गायन - लता मंगेशकर, मोहम्‍मद रफी,महेन्‍द्र कपूर, साधना सरगम, कुमार शानू, अनूप जलोटा, विनोद राठौर, उदित नारायण, सुदेश भोंसले, कविता कृष्‍णमूर्ति, सुमन कल्‍याणपुर, मीनू पुरषोत्‍तम, मन्‍ना डे, बाबा सहगल, अनुराधा पौडवाल, सोनू निगम, अभिजीत, बाबुल सुप्रियो और सुरेश वाडकर जैसे बालीवुड वालों के साथ स्‍थानीय प्रतिभाओं में ममता चंद्राकर, अलका चंद्राकर, मिथिलेश साहू, सुनील सोनी, अनुज शर्मा, प्रभा भारती आदि की लंबी सूची है।

अभिनय - अनुज शर्मा, प्रकाश अवस्‍थी, करन खान, अनिल शर्मा, प्रदीप शर्मा, लोकेश देवांगन, रा‍जू दीवान, मनोज जोशी, योगेश अग्रवाल, संजय बत्रा, चंद्रशेखर चकोर, शशिमोहन सिंह, अंकित जिंदल/ निशा गौतम, पूनम नकवी, प्रीति डूमरे, विभा साहू, शिखा चिदाम्‍बरे, रीमा सिंह, स्‍वप्निल कर्महे, सीमा सिंह, सिल्‍की गुहा/ मनमोहन ठाकुर, अनिल वर्मा, रजनीश झांझी, पुष्‍पेन्‍द्र सिंह, उपासना वैष्‍णव, सुमित्रा साहू, संजू साहू, रंजना नोनहारे/ शिवकुमार दीपक, कमल नारायण सिन्‍हा, संजय महानंद, शैलेष साहू, निशांत उपाध्‍याय, बसंत दीवान, प्रमोद भट्ट, हेमलाल कौशिक, क्षमानिधि मिश्रा।

ऊपर आए नाम महत्‍व या प्राथमिकता के अनुसार नहीं हैं, न ही सूची, यह मात्र कुछ उदाहरण हैं।

छत्‍तीसगढ़ी फिल्‍मों का तथ्‍यात्‍मक, पक्‍का लेखा-जोखा बनाने के लिए इस शुरूआत के साथ प्रस्‍ताव है कि निम्‍नानुसार बिंदुओं पर जानकारी-सूची तैयार करने की तुरंत आवश्‍यकता बनने लगी है, प्रस्‍तावित बिंदु हैं - फिल्‍म का नाम, मुहूर्त दिनांक, सेंसर सर्टिफिकेट का वर्ग और दिनांक, रिलीज दिनांक, निर्माता/बैनर, निर्देशक, कहानी-पटकथा-संवाद, संगीत, गीत, गायक-गायिका, अभिनेता इसके साथ तकनीशियनों और फिल्‍म की सफलता आदि अन्‍य पक्ष।

पहले भी निवेदन कर चुका हूं कि यह मेरी प्राथमिक जानकारी का क्षेत्र और विषय नहीं है इसलिए प्रारूप, सूची, जानकारी में संशोधन-सुझाव का स्‍वागत रहेगा। कृपया जानकारी सिर्फ नाम जोड़ने-काटने वाली नहीं, बल्कि उक्‍तानुसार बिंदुओं पर तथ्‍यात्‍मक हों, अगर संभव हो तो फिल्‍मवार जानकारी का सहयोग दें, यानि किसी एक फिल्‍म से संबंधित उक्‍त सभी बिंदुओं पर एक साथ अधिकृत जानकारी।

बिना खास तैयारी के उत्‍साह के चलते शुरू तो कर दिया है, लेकिन कोई यह बीड़ा उठाना चाहे तो उनके लिए हरसंभव सहयोग सहित आभारी रहूंगा। यहां उल्लिखित सभी नामों के प्रति आदर।

Monday, October 18, 2010

फिल्मी पटना

या कहें- 'पटना : मेमोरीज, ड्रीम्स, रिफ्लेक्शन्स'। पटना, मुझे फिल्मी सा ही याद आता है। कई बार इस तरह सोचना भी भाता है कि पटना नामक फिल्म तो नहीं देख ली, जिसकी स्मृति को कुछ पढ़े-सुने के साथ गड्‌ड-मड्‌ड कर, इसे अपना देखा शहर मान लेता हूं। ... ... शुरू करें-

मैं राजगीर के रास्ते पर हूं। फिर मुझे सीधे दिखाई देता है, रोप-वे। ऐसा कुछ होता है, सुना भी नहीं था, वह अब सिर्फ देख ही नहीं रहा हूं, सवार हो चुका हूं, चारों ओर हरियाली घाटी। ... ... रास्ते में कहीं गरम पानी का सोता और कुंड मिलता है, ऐसा कैसे होता होगा, प्राकृतिक रूप से या पर्यटकों के लिए किया गया इंतजाम है ... ... नालंदा आता है, कितनी सीढ़ियां, कितने कमरे, कितने किस्से। किसने बनवाया, क्यों दबा, कैसे पता लगा, खोदा किस तरह ? सवाल बने रहे, तब तक और क्या सूझे। ... ... पावापुरी, साफ-सुथरा संगमरमरी, चारों ओर खिले कमल से लबालब भरा बड़ा सा तालाब, ऐसा सचमुच होता है? यह जिक्र कर जैन परिचितों के बीच ईर्ष्या का पात्र बनने की सूक्ष्म हिंसा कई बार कर चुका हूं।

यह सब कम फिल्मी नहीं लगा था, याद ताजा थी और तब तक फिल्म आ गई 'जानी मेरा नाम'। इसमें रोप-वे भी दिख गया और नालंदा भी। मेरे लिए यह वह पहली फिल्म थी, जिसमें दिख रही चीजों को फिल्म से पहले आमने-सामने देख चुका हूं। हां, इस फिल्म में ट्रांसमीटर बनाकर दिखाया गया फिलिप्स फिएस्टा ट्रांजिस्टर हमारे घर आ चुका था, यह भेद बूझ लेना और फिर उसी पर '... ... वादा तो निभाया' सुनना, नालंदा और रोप-वे ... ... याद ताजी कर देता था।

बचपन की याद, तब गांधी सेतु नहीं था। वो महेन्द्रू घाट के शीशे वाले रेस्टोरेंट से स्टीमर को आते देखना तो 'जैसा फिल्मों में होता है ... ...' लगा था। यह याद तब और गहरा गई, जब कहीं अविश्वसनीय सा पढ़ा कि अस्सी की आयु पूरी कर चुके बुद्ध, यहां से अंधेरी बरसाती रात में उफनती गंगा, तैर कर दूसरे पाट-हाजीपुर, पहुंचे थे। फिल्म सिद्धार्थ का गीत 'ओ नोदी रे कोथाय तोमार देश ... ...' सुनकर मैं मानता था कि फिल्म में बुद्ध के गंगा पार करने का भी दृश्य होगा। महेन्द्र को संघमित्रा के साथ, अशोक ने यहीं-कहीं से दूर देस के लिए रवाना किया होगा। ... ... किसी पटना जाने वाले से मैंने पूछ लिया था, कहां जा रहे हैं, जवाब मिला था 'बाढ़'। यह गांव का नाम निकला, मुझे पहले अजूबा फिर मजेदार लगा था।

कभी कॉलेज टूर में नेपाल से पटना आना था। काठमांडू घूमते हुए एयरपोर्ट गए और पटना का टिकट पूछा। एस्कर्शन टीम के रूप में कन्सेशन भी मिल गया, भारतीय रुपयों में हिसाब लगाकर देखा तो समाइत में था। इस तरह पहली 'अंतरराष्ट्रीय' हवाई यात्रा कर, हिमालय के ऊपर से उड़ कर अपने वतन में पटना लैण्ड किया। विमान से बाहर निकलते हुए सावधान होकर, मन में पुरानी फिल्मों के आरंभ वाली न्यूजरील की छवि लिए, जिसे हम टेलर कहते थे, जिसमें प्रधानमंत्री अभिवादन में हाथ हिलाते निकलते दिखते थे, मानों खुद को कैमरे की निगाह से देख रहे हों, हम भी धीरे-धीरे सीढ़ियां उतर कर बाहर आए, ... ... आसमान से उतरे, सपनों से हकीकत में।

पटना के गांधीनाम-सेतु के साथ गांधी मैदान का नाम सुन रखा था। मालूम हुआ कि आगे गांधी मैदान है, उसी तरफ बढ़ चला। घने बसे शहर के बीच अचानक खाली रह गया सा। यह शायद इसलिए और बड़ा लगा कि वहां लोग थोड़े से ही जमा थे। सीधे सुना सकने लायक समूह के सामने भोंपू-फाड़ भाषण हो रहा था। सड़क के बाईं ओर टाकीज में फिल्म थी 'चोर मचाए शोर'। फिल्म के पोस्टर और गांधी मैदान के इस भाषण की छवि जुड़कर ऐसी अंकित हुई कि कोई उत्तेजक भाषण सुनकर यह अनचाहे याद आ जाता है। जैसे टूटी और खुद कर पटी सड़क कहीं भी देखूं, समानार्थी की तरह याद आता है- 'बोरिंग कैनाल'।

शहर देखते हुए उससे पहचान बनाने के लिए गाइड-बुक से ज्यादा लोगों पर निर्भर करना मददगार होता है। जाने-अनजानों के अलावा रिक्शा वाले की निःशुल्क मार्गदर्शक सेवा लेना, उसे सारथी सम्मान देने के साथ किफायती और फायदे का सौदा लगता है। मुझे पटना के साथ भी ऐसा प्रयोग करने के कई अवसर मिले। वैसे इस समझदारी के चलते कई बार वांछित तक पहुंचने में दुगुना समय लगा है, बावजूद इसके, यह आदत बदलना मुझे अस्मिता का सवाल लगने लगता है।

सितंबर-अक्टूबर महीना। पटना में पुराना कुछ कहां देखा जा सकता है, पुराना यानि पुरातात्विक ..., पाटलिपुत्र ..., सड़क किनारे दो-तीन पढ़े-लिखे सज्जन थे, उनसे मैंने पूछा, वे मुखातिब हुए मेरे रिक्शा वाले से और अच्छी तरह समझाया कि हमें कहां-कहां जाना है। हम पहुंच गए पाटलीपुत्रा कालोनी, लेकिन रास्ते में इतना पानी भरा था कि अंदर नहीं जा सकते। बताया गया कि पॉश कालोनी है, इसलिए इसे छोड़कर आगे बढ़े। अब जिस रास्ते से हम गुजरे, गंगा हमारे दाहिने बह रही थी, ऐसा लग रहा था कि यहां नदी का जल-स्तर सड़क से ऊपर है। रिक्शावाले ने बताया कि हम बुद्धा कालोनी जा रहे हैं। मैंने सोचा कि गंगा-दर्शन हो गए और अब रिक्शा वाले से ही मार्गदर्शन लेना चाहिए।

रिक्शा वाला अब मुझे ले आया, गोलघर। रास्ते में थाना फूलपुर पढ़ा और मैंने अपने संचित सूचना का सहारा ले कर माना कि मैंने पुष्पपुर देख लिया है। 'देखा', दर्ज कर लेने जितना देखकर अपनी ठांव मिली 'केपी जायसवाल संस्थान' और पटना संग्रहालय। इतने सब के बाद यक्षी वाला दीदारगंज, कुम्हरार देखने और अगम कुंआ में सिक्का डाल कर गहराई नापने की चाह, अगली बार के लिए मुल्तवी हो गया। 'मारे गए गुलफाम' का 'तीसरी कसम' बन जाना कितना फिल्मी, कितना असली, जुगाली के लिए बचा लेता हूं।

शाम को पैदल भटकते लौटते हुए दुर्गा पूजा की रौनक और धूम से शहर कल्पना-लोक में बदल गया लग रहा है। लगा कि पटना-कलकत्ता के सांस्कृतिक रिश्ते पूजा, विदेसिया और शौकीन मारवाड़ी रईसों में सबसे सहज प्रकट है। पटना से जुड़े तीन परिचितों- शशि शेखर, संजय रंजन और सुरेश पांडे जी, को याद करता हूं-

पांडे जी रायपुर में और संजय रंजन बिलासपुर आकाशवाणी में रहे। ... ... पुस्तकालयों की सदस्यता लेते हुए मेरा उत्साह ऐसा होता कि अवाप्ति क्रमांक १ से पढ़ना शुरू करूंगा, उस दौरान अपने हमउम्रों में इतना कुछ पढ़े बिरले मिले और जिनके कारण हमारे लिए 'आकाश-वाणी', आपस की बात जैसी आत्मीय हो गई। ... ... बीस-पचीस साल पहले अभियंता शशिशेखर का साथ रहा। उग्र हुए बिना दृढ़ और कर्तव्यनिष्ठ, मध्यप्रदेश सरकार में मुलाजिम रहे युवा शशि ने हमेशा अपने ढंग से ही काम किया। ठंडी और सपाट विनम्रता, दबंगों पर कितनी आसानी से भारी पड़ती है, प्रत्येक अवसर पर साबित करने वाले। सिर्फ कंकड़ बाग याद है और कोई पता नहीं, कैसे तलाश करूं।

... ... वैसे गंगा, मेरे लिए नदी के पर्याय जैसा शब्द है। मन के किसी तल पर हमारे अपने निजी शब्द-संदर्भ कोश भी होते हैं, जो कभी धारणा, कभी रूढ़ि तो कभी पूर्वग्रह लगते हैं, ... ... और 'लिंक' के बिना असम्बद्ध जैसे भी। शायद यही रचनात्मक रूप में कभी भाव-ऋचा और स्पर्श-वास्तु बन कर उजागर होते हैं ... ... खैर, कुछ अपने काम के सिलसिले में और कभी अपने शौक के चलते नदियों के किनारे, उद्गम, संगम और मुहाने पर भटकते रहने से मन अभी भी नहीं भरा है, सोच कर ही रोमांच होने लगता है। गंगा के लिए क्या कहूं, फिल्मी गीत है 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' मेरी ओर से संकल्प नहीं, बस भाव-पियरी।

टीप :

टिप्पणी करते हुए अपनी 'विद्वत्ता' निभा लेना बहुत कठिन नहीं होता। कहते हैं, किसी विषय पर जानना हो तो उस पर लेख लिखें, (इसके लिए पढ़ना पड़ेगा और) आपका काम बन जाएगा। ... ... अगर बिना पढ़े ही कुछ अधिक लिखना हो तो, (लेखक-कवि गण अन्यथा न लें) अधिकतर अपनी क्षीण-सी साहित्यिक 'प्रतिभा' पर भरोसा ही साथ देता है और कई बार तो मुझ जैसे को भी कविता टाइप कुछ-कुछ सूझने लगता है। ... ... बात का खुलासा, कभी सतीश सत्यार्थी जी की पोस्ट पर टिप्पणी करते पटना याद आया। राजू रंजन जी की 'गंगा, गंगा-स्नान और भारतीय संस्कृति' की मेरी टिप्पणी पर उन्होंने कहा कि इस विषय (गंगा) पर मेरे पास जो कुछ है, उसे लिखूं। इस मुश्किल का हल सूझा कि अपनी टिप्पणी के अगल-बगल भटक कर राह तलाश करूं। इस तरह गंगा के पास से गुजरते, अपना विद्वत्ता-भ्रम सुरक्षित रखते, राजू जी के सदाशय-सुझाव का अनुपालन संभव होगा। ... ... आकाशवाणी से फरमाइशी फिल्मी नग्मे।

'फिल्मी' इस पोस्ट में कोई चित्र नहीं है। तस्वीरें, कई बार लगता है कि कल्पना को दिशा देते हुए, उसे सीमित करने लगती हैं, रंगों को फीका कर देती हैं। ... ... संदर्भ तलाशने के दबाव से मुक्त रह कर कुछ लिखने का इरादा होता था, डायरी जैसा, सो यह उपयुक्त लगा। ... ... पटना से संबंधित बृजकिशोर प्रसाद जी ने इसे पढ़ा, पोस्ट के लायक माना, उनका भी आभार।

(पटना साहिब, बाबा मुराद शाह, दानापुर, बेउर, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, दिनकर, शत्रुघन सिन्हा और अफीम वाली चटाई के साथ यादों की छान-बीन में कुछ और मिल सका तो वह सब किसी अगली पोस्ट के लिए)

Friday, October 8, 2010

बिटिया


किसी पेड़ की इक डाली को,
नव जीवन का सुख देने
नव प्रभात की किरणों को ले,
खुशियों से आंचल भर देने
दूर किसी परियों के गढ़ से, नव कोंपल बन आई बिटिया।
सबके मन को भायी बिटिया, अच्छी प्यारी सुन्दर बिटिया॥

आंगन में गूंजे किलकारी,
जैसे सात सुरों का संगम
रोना भी उसका मन भाये,
पर हो जाती हैं, आंखें नम
इतराना इठलाना उसका,
मन को मेरे भाता है
हर पीड़ा को भूल मेरा मन,
नए तराने गाता है
जीवन के बेसुरे ताल में, राग भैरवी लायी बिटिया।
सप्त सुरों का लिए सहारा, गीत नया कोई गाई बिटिया॥

बस्ते का वह बोझ उठा,
कांधे पर पढ़ने जाती है
शाम पहुंचती जब घर हमको,
आंख बिछाए पाती है
धीरे-धीरे तुतलाकर वह,
बात सभी बतलाती है
राम रहीम गुरु ईसा के,
रिश्‍ते वह समझाती है
कभी ज्ञान की बातें करती, कभी शरारत करती बिटिया।
एक मधुर मुस्कान दिखाकर हर पीड़ा को हरती बिटिया॥

सुख और दुख जीवन में आते,
कभी हंसाते कभी रुलाते
सुख को तो हम बांट भी लेते,
दुख जाने क्यूं बांट न पाते
अंतर्मन के इक कोने में,
टीस कभी रह जाती है
मैं ना जिसे बता पाता हूं,
ना जुबान कह पाती है।
होते सब दुख दूर तभी, जब माथा सहलाती बिटिया।
जोश नया भर जाता मन में, जब धीमे मुस्काती बिटिया॥

लोग मूर्ख जो मासूमों से,
भेदभाव कोई करते हैं
जिम्मेदारी से बचने को
कई बहाने रचते हैं
बेटा-बेटी दिल के टुकड़े,
इक प्यारी इक प्यारा है
बेटा-बेटी एक समान,
हमने पाया नारा है
घर की बगिया में जो महके, सुन्दर कोमल फूल है बिटिया।
पाप भगाने तीरथ ना जा, सब तीरथ का मूल है बिटिया॥

मान मेरा सम्मान है बिटिया, अब मेरी पहचान है बिटिया।
ना मानो तो आ कर देखो, मां-पापा की जान है बिटिया॥
मेरी बिटिया सुन्दर बिटिया,
मेरी बिटिया प्यारी बिटिया॥

कई क्षेत्रों में सक्रिय जयप्रकाश त्रिपाठी जी (+919300925397) स्टेट बैंक से जुड़े हैं, यह 'बिटिया' उनकी रचना है। बहुमुखी जयप्रकाश जी की प्रतिभा के अन्य रूपों को अच्छी तरह पहचान पाने में मेरी रूचि-सीमा आड़े आती रहती है। लेकिन पद्य पढ़ने से बचने वाला मैं, उनकी यह कविता बार-बार पढ़ता हूं। 'बिटिया' की वेब पर विदाई के लिए उन्होंने सहमति दी, उनका आभार।

नाम-लेवा पानी-देवाः

पुंसंतति के लिए कहा जाता है कि कोई तो होना चाहिए नाम-लेवा पानी-देवा जिससे वंश चले, आशय तर्पण से होता है, लेकिन पुत्री द्वारा मुखाग्नि और श्राद्ध-तर्पण की खबरें भी आजकल मिलने लगी हैं। बात आती है नाम-लेवा की तो कहा जाता है-
'नाम कमावै काम से, सुनो सयाने लोय। मीरा सुत जायो नहीं, शिष्‍य न मूड़ा कोय।'

बिलासपुर का एक किस्सा भी याद आ रहा है। मैंने सचाई तहकीकात नहीं की, किस्सा जो ठहरा। न सबूत, न बयान, कोई साखी-गवाही भी नहीं। आप भी बस पढ़-गुन लीजिए। तो हुआ कुछ यूं कि एक थे वकील साहब, खानदानी। अंगरेजों का जमाना। सिविल लाइन निवासी इक्के-दुक्के नेटिव। हर काम कानून से करने वाले और कानून से हर कुछ संभव कर लेने वाले। कहा तो यह भी जाता है कि उनकी जिरह-पैरवी सुन जज भी घबरा जाते थे। फिर मामला कोई भी हो, मुकदमा हारें उनके दुश्‍मन।

उच्च कुल के इन वकील साहब को कुल जमा एक ही पुत्री नसीब हुई। इंसान का क्या वश, यह फैसला तो ऊपर वाले का था। वंश परम्परा के रक्षक, पुश्‍तैनी वकील ने बेटे-बेटी में कोई फर्क न समझा। बिटिया को भी वकालत पढ़ाया। बिटिया काम में हाथ बंटाने लगी। कानून की किताबें, केस ब्रीफ और कागजात सहेजने लगी। वकील साहब निश्चिंत।

चिंता हुई, जब पत्नी ने बिटिया के हाथ पीले कर, उसे विदा करने का जिक्र छेड़ा। वकील साहब सन्न। किताबों की ओर देखने लगे इनका क्या होगा, मुवक्किल कहां जाएंगे, यह तो कभी सोचा ही नहीं। पति की चुप्पी भांपते हुए पत्नी तुरंत आगे बढ़ी, बोली बाकी तो जो रामजी की मरजी, लेकिन आप तो कोट-कछेरी में ही रमे रहे, कभी सोचा, कुल-खानदान का क्या होगा, वंश कैसे चलेगा। वकील साहब ने फिर किताबों की आलमारी की तरफ देखा और अब आसीन हो गए अपनी स्प्रिंग-गद्दे वाली झूलने वाली कुरसी पर। कुछ लिखते, कुछ पढ़ते, कुछ सोचते, झूलते-झालते रात बीत गई। ऐसा केस तो कभी नहीं आया था। लेकिन मामला कोई भी हो, आदमी हल तो अपनी विधा में ही खोजता है। उन्होंने वंश चलाने का रास्ता तलाश ही लिया, विधि-सम्मत।

सुयोग्य वर की तलाश होने लगी। पात्र मिल गया। वकील साहब ने होने वाले समधी से शर्त रखी कि वे भावी दामाद को न सिर्फ बेटा मानेंगे, बल्कि गोद ले लेंगे और अपनी बिटिया को उन्हें गोद देंगे। रिश्‍ता पक्का हुआ। गोदनामा बना, बाकायदा रजिस्टर भी हुआ। बस फिर क्या देर थी, चट मंगनी पट ब्याह। वकील साहब अपनी बेटी को बहू बनाकर, विदा करा अपनी ड्‌योढ़ी में ले आए। घर-आंगन खुशियों से भर गया.....जैसे उनके दिन फिरे .....या जैसे उन्होंने अपने दिन फेरे। वकील साहब का वंश चल रहा है, चलता रहे, 'आचन्द्रार्क तारकाः.....। अब आप ही बताइये, बेटी ही तो मां है, कौन सा वंश है जो बिना मां के चलता है और कौन कहेगा कि बेटी से वंश का नाम नहीं चल सकता।

आज नवरात्रि का आरंभ। या देवि सर्व भूतेषु .....

यह पोस्‍ट तैयार करते हुए मीरा वाली पंक्तियां ठीक याद नहीं कर सका था। यह भी याद नहीं आ रहा था कि यह कब और कहां पढ़ा-सुना। पोस्‍ट लगा दी फिर भी राजस्‍थान के और हिन्‍दी साहित्‍य वाले परिचितों को टटोलता रहा। 8 जनवरी 2011 को कवि उपन्‍यासकार विनोद कुमार शुक्‍ल जी पर केन्द्रित आयोजन में प्रो. पुरुषोत्‍तम अग्रवाल जी रायपुर आए मैंने चान्‍स लिया, उन्‍होंने तुरंत बताया और यह भी जोड़ा कि ये उनकी पसंद की पंक्तियां हैं। सो, अब सुधार दिया है।

Thursday, September 30, 2010

राम के नाम पर

'विष्णु की पाती राम के नाम' की शुरूआत में ही विष्‍णु, राम के साथ बैठे हैं और कह रहे हैं 'काफी ले आना हनुमान'। यह कोई गड़बड़ रामायण नहीं, अच्छी खासी पुस्तक का जिक्र है, जिसका विमोचन 15 सितंबर को मारीशस में वहां के संस्कृति मंत्री श्री मुखेश्वर ने किया।


पुस्तक, विष्णु प्रभाकर जी द्वारा राम पटवा जी को लिखे पत्रों का संकलन है और हनुमान, काफी हाउस के बैरे का नाम। इसका संपादन सृजन गाथा वाले जयप्रकाश मानस जी ने किया है। फ्लैप पर प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर के अध्यक्ष विश्वरंजन जी ने लिखा है- 'इन पत्रों को मैं उस रूप में देखता हूं जिस रूप में शेक्सपीयर द्वारा युवा आलोचक एलेन स्टवर्ट को लगातार लिखे गए पत्र (शैक्सपीयर लैटर्स एडीटर-एलेन स्टूवर्ट) को देखा करता हूं।' उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि 'राम पटवा ऐसे सौभाग्यशाली साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्हें विष्णुजी सदैव और सर्वत्र अपने व्याख्‍यानों में याद करते थे।'

विष्णु जी जगह-जगह, राम पटवा जी की लघु कथा 'अतिथि कबूतर' सुनाते हुए कहते कि 'शब्द मेरे हैं पर कथा श्री राम पटवा की है और वह किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं है।' आइये देखें उस लघु कथा को-

रोज सुबह एक छत पर दो कबूतर मिला करते थे। दोनों में घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। एक दिन दूर खेत में दोनों कबूतर दाना चुग रहे थे, उसी समय एक तीसरा कबूतर उनके पास आया और बोला, ''मैं अपने साथियों से बिछड़ गया हूं। कृपया आप मेरी मदद करें।''
दोनों कबूतरों ने आपस में गुटर-गूं किया, ''भटका हुआ अतिथि है.. अतिथि देवो भवः,'' लेकिन प्रश्न खड़ा हुआ कि यह अतिथि रूकेगा किसके यहां? दोनों कबूतर अलग-अलग जगह रहते थे, एक मस्जिद की मीनार पर तो दूसरा मंदिर के कंगूरे पर।
अंततः यह तय हुआ कि अतिथि कबूतर को दोनों कबूतरों के साथ एक-एक दिन रूकना पड़ेगा।
तीसरे दिन 'अतिथि' की भावभीनी विदाई हुई। दोनों मित्र अतिथि कबूतर को दूर तक छोड़ने गए। शाम को जब वे लौटे तो देखा - मंदिर और मस्जिद के कबूतरों में 'अकल्पनीय' लड़ाई हो रही है। इस दृश्‍य से दोनों स्तब्ध रह गए। बाद में पता चला कि अतिथि कबूतर संसद की गुंबद से आया था।

इस पुस्तक पर थोड़ी बात। संग्रह के पृष्ठ 31 पर पोस्ट कार्ड का मजमून कुछ इस तरह है-

आपके लेख की प्रतिलिपि मिली। राम की कथा को हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी दृष्टि से देखा है। मैने नवभारत टाइम्स में एक छोटा-सा लेख लिखा था और उसमें कितने ही राम गिनाए थे। वास्तव में राम ऐतिहासिक नहीं, पौराणिक पुरुष हैं और उस युग के मूल्यों के प्रतीक हैं जब आर्य लोग पशु चराना छोड़कर खेती करने लगे थे और नदियों के किनारे बस्तियां बसाई थीं। ऐसे समय ही वर्ण-व्यवस्था और आदर्श मूल्यों का निर्माण हुआ था उसी को किसी कवि ने कथा का रूप दिया। अगर यह भी मान लें कि राम कभी हुए थे तो भी वह कुछ मूल्यों के प्रतीक थे; सत्ता का त्‍याग, अन्याय का प्रतिकार, साधुजनों की रक्षा और जितने भी पिछड़े वर्ग है उनको समान स्तर पर लाना। आज जो राम का नाम लेते हैं उनमें से कोई भी इन मूल्यों को नहीं मानता। बौद्ध दर्शन में तो यह आता है कि साकेत कभी किसी राजा की नगरी रही ही नहीं वह तो व्यापार नगरी थी। दशरथ बनारस के राजा थे। बौद्ध जातक में यह कथा दी हुई है सीता किसी के गर्भ में पैदा नहीं हुई थी सीता का अर्थ है जुती हुई जमीन। वाल्‍मीकि स्वयं शुद्र जाति के थे क्रौंचवध के बाद उनके मन में स्वतः ही कविता फूट पड़ी वह बदल गए और उन्होंने एक आदर्श पुरुष की कल्पना करके रामकथा लिखी। वह केवल अयोध्या काण्ड ही लिख पाए थे। ऐसे ही अनके कथानक हैं। लोकगीत में तो और भी विचित्र बातें बताई गई हैं। आज तो राजनीतिज्ञों ने वोट मांगने का साधन बनाया हुआ है। राम के मूल्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं।

पुस्तक के पृष्ठ 32 पर विष्णु जी की कविता प्रकाशित है। सर्वनाम संबोधन 'प्रिय आत्मन्‌' से ऐसा लगता है कि यह नया साल 1993 के लिए प्राप्त हुई शुभकामनाओं के जवाब में उनके द्वारा सभी को प्रेषित किया गया होगा, अन्य संदर्भ तो साफ है, लेकिन ध्‍यातव्‍य कि यह तेवर, 80 बरस पार कर चुके 'इन्सान' के उद्वेलित हो कर खीझे, व्यथित मन की अभिव्यक्ति है, जिसमें (सर्वेश्‍वर जी वाले?) 'भेड़िये' भी हैं -


धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम
लो आ गया एक और नया वर्ष
ढोल बजाता, रक्त बहाता
हिंसक भेड़ियों के साथ.
ये वे ही भेड़िये हैं
डर कर जिनसे
की थी गुहार आदिमानव ने
अपने प्रभु से -
'दूर रखो हमे हिंसक भेड़ियों से'
हां, ये वे ही भेड़िए हैं
जो चबा रहे है इन्‍सानियत इन्‍सान की
और पहना रहे हैं पोशाकें उन्हें
सत्ता की, शैतान की, धर्म की, धर्मान्धता की.
और पहनकर उन्हें मर गया आदमी
सचमुच
जी उठी वर्दियां और कुर्सियां
जो खेलती हैं नाटक
सद्‌भावना का, समानता का
निकालकर रैलियां लाशों की.
मुबारक हो, मुबारक हो
नयी रैलियों का यह नया युग
तुमको, हमको और उन भेड़ियों को भी
सबको मुबारक हो.
धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम ...

इस ताजी पुस्तक में शामिल चिटि्‌ठयां, पुरानी और निजी किस्‍म की भी हैं फिर छपी क्योंकर है? किसी ने बौद्धिक मासूमियत से खुद को कहीं 'मोतिया' कहने वाले से पूछा है- 'कबीर! तुम कब अप्रासंगिक होओगे?' दिल-दिमाग दुरुस्‍ती से भरोसा रखें कि 'होइहि सोइ जो राम रचि राखा' तो 'न्याय-मंदिर' की प्रार्थना-इबादत भी 'सर्वजन हिताय रघुनाथ गाथा' साबित होगी।

मंदिर की जोड़-तोड़ः

किसी ने 'जोड़-तोड़' नामक एक सुरक्षा फार्मूला सुझाया है। यह विशेष उपयोगी होता है, दर्शनार्थ मंदिर जाने में, पादुकाएं बचाने के लिए। करना बस यह होता है कि मंदिर में प्रवेश के समय पादुकाएं उतारते हुए, जोड़ी तोड़ दें, एक साथ न रखें यानि एक पादुका एक तरफ और दूसरा परली बाजू में। बस इतने जोड़-तोड़ से आपकी पादुकाएं सुरक्षित रहेंगी। वैसे यह दर्ज करना सुझाने वाले की इस बात का उल्‍लंघन है कि 'जूता चोरों के हित में इसे जारी न किया जाए' लेकिन यह पेज तो हितग्राही और भुक्‍तभोगी सहित, सभी के लाभार्थ, लोक हित में है। इस तरकीब की अनुप्रयुक्‍तता कहां-कहां संभव है, गुणीजन विचार कर सकते हैं।

श्री राम पटवा जी (+919827179294) ने पुस्तक विमोचन की मेरी सहज जिज्ञासा के जवाब में तुरंत पुस्तक सहित मूल दस्तावेज और फोटो उपलब्ध करा दिए। उनकी उदारता से कई परिचित अक्सर लाभान्वित होते हैं।

Wednesday, September 22, 2010

देथा की 'सपनप्रिया'


शाम ढल रही है। दिया-बत्ती की तैयारी होने लगी। अंधेरा घिरने लगा, लेकिन आंखों में नींद और नींद में सपने के लिए अभी देर है। एक बूढ़े ने जरूर खुली आंख का सपना बुनना शुरू कर दिया है। ओसारे में उकडू बैठा, अस्थितना, कृश देह पर आवरण जैसी चिपकी सलदार चमड़ी, उसके ऊपर फिर बन्डी और धोती। चिमनी की टिमटिमाती रोशनी में चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ रहा है। उसकी खनकती आवाज सुनाई पड़ रही है और दिख रही हैं, चमकती आंखें। शायद ये आंखें दिन भर उम्र से बुझी-बुझी रहती हों, लेकिन अंधेरा होते ही चमकने लगती हैं, सपने जो बुनती हैं। इन आंखों ने अतीत के इतने चेहरे, और चहेरों के इतने रंग देखे हैं कि वह सब आंखों में न झिलमिलाए तो आंखें पथरा ही जाएं।

सामने इक्का-दुक्का से शुरू होकर झुण्ड बढ़ने लगी है, जिसमें हर तरह के और हर उम्र के बच्चे हैं। बच्चों के साथ उनकी मासूमियत और जिज्ञासा भरी आंखें हैं, जिनमें थोड़ी-थोड़ी देर में झिलमिल परछाईं उभरती है। बच्चों के चेहरे साफ-साफ दिखाई पड़ रहे हैं, कोई आपकी तरह है, कोई मेरी तरह और कई बच्चे तो हमारे बुजर्गों-पीढ़ियों के हमशक्ल भी हैं।

बूढ़ा फन्तासी गढ़ रहा है, तिलस्म रच रहा है। गाछ-बिरिछ, नदी-नाले, पत्थर-लकड़ी में भी धड़कन होने लगी है। जान आ गई है। चमत्कार हो रहे हैं, और मानुस जात, चाहे राजा हो या रंक, साधु हो या संत, मछुआरा हो या लकड़हारा, लालसा की सभी पुतलियां कठुआ कर नाचने लगी हैं। रात गहराने लगी है और कथा सुनते-सुनते, आंखें उनींदी होने के बजाय खुलने लगीं या अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो गईं। अरे! यह तो बिज्जी है, विजयदान देथा, जो कहता है कि ''एक नैसर्गिक खासियत की बात बताऊं कि तिहत्तर बरस की उम्र में बुढ़ापे का असर देह और मन प्राण पर तो अवश्य पड़ा है, पर अध्ययन और सृजन के सीगे अब भी सोलह बरस का किशोर हूं।'' (पृ.- चौदह)

सृजन और अध्ययन की गति, साहित्य की प्रत्येक विधा के रचनाकार को किशोर बनाए रखती है। यों प्रासंगिक व अद्यतन बने रहने के लिए सतत्‌ अध्ययन की सर्वाधिक आवश्यकता आलोचक को होती है, तो देथा की विधा के रचनाकार के लिए न्यूनतम आवश्यक है, किन्तु इस उम्र में भी उनके अध्ययन का क्रम किसी सजग आलोचक जैसा निरंतर है, इसीलिए वे अपनी रचनाओं में मग्न रहने के साथ अप-टू-डेट रचनाकार हैं। जहां तक सृजन का पक्ष है तो देथा ने जिस गति से और जितनी तादाद में रचना की है, उसका एक नमूना यह संग्रह भी है। 'सपनप्रिया' की बाइस कहानियां सन '97 के केवल पांच माह में लिखी गई हैं। दो कहानियां कुछ पुरानी हैं और दो पर भूमिका के बाद की तारीख पड़ी हैं, जिनमें से एक तो आधे पेज की रचना है और दूसरी, परिशिष्ट की कहानी 'सपने की राजकुंअरी' है। इस परिमाण में लेखन कैसे संभव होता है, यह देथा ने स्वयं भूमिका में स्पष्ट किया है- ''लिखने के पूर्व- चाहे किसी विधा में लिखूं- कविता, कहानी, गद्यगीत, निबंध या आलोचना- न कुछ सोचता था, लिखना शुरू करने के बाद न रूकता था न काट-छांट करता था और न लिखे हुए को फिर से पढ़ता था। (पृष्ठ - ग्यारह) देथा की रचना प्रक्रिया में लेखन की यह प्रवृत्ति उनके लिए अनुकूल हो सकती है लेकिन अनुकरणीय नहीं। वैसे पुस्तक की भूमिका, देथा की रचनाओं से बने उनके कद को कम ही करती है, अच्छा होता कि पूर्व की भांति वे भूमिका लिखने की जिम्मेदारी कोमल कोठारी पर डालकर स्वयं को कहानियां रचने के लिए स्वतंत्र रखते।

पहली और मुख्‍य कहानी 'सपनप्रिया' तथा परिशिष्ट 'सपने की राजकुंअरी' एक ही कथा का पुनर्लेखन है और लेखक के शब्दों में- ''मूलभूत कथानक की समानता के बावजूद (इनमें) फूल और इत्र सा वैविध्य है।'' लेखक ने यह भी कहा है कि- ''मेरी रचनाओं में गहरी रूचि रखने वाले परम हितैषी मुझे टोकते रहते हैं, कि मैं नये सृजन की कीमत पर राजस्थानी या हिन्दी में पुनर्लेखन न करूं। पर मुझे इसमें प्रजापति-सा आनंद आता है। साथ ही लेखक ने अपनी ओर से दोनों कहानियों की व्याख्‍या की जिम्मेदारी अनिल को सौंपी है जिन्हें भूमिका के रूप में लिखित 'इधर-उधर' शीर्षक का पत्र संबोधित है। लेखक ने इस प्रश्न के न्यायसंगत उत्तर की भी आशा की है कि- ''क्या 'सपने की राजकुंअरी' में दीवान की बेटी का हत्या से परम्परागत अन्त करके 'सपनप्रिया' में उसके प्राण बचाने की अनाधिकार चेष्टा तो नहीं की मैंने? कोई अपराध तो नहीं किया है?''

यह लेखक अपने लिखे को फिर से नहीं पढ़ता, लेकिन अपने लिखे पर न्यायसंगत उत्तर की आशा में स्वयं सवाल खड़े करता है, देथा से पाठक को जो उम्मीद है, वह इससे कायम रह जाती है। वैसे 'सपनप्रिया' में दीवान की बेटी की हत्या के बजाय उसके प्राण बचाना अपराध नहीं तो अनाधिकार चेष्टा अवश्य है। लोक स्वरूप की कथाओं में नैतिकता का किताबी आग्रह कभी इतना प्रबल नहीं होता, जितना दीवान की बेटी के प्राण बचाने में हो गया है। यहीं पर विचार कर लेना उपयुक्त होगा कि बोलियों में सुनाई जाने वाली मौखिक परम्परा के किस्से-कहानियां, गाथाएं, भाषा के चौखट में बंधकर, एक जिल्द में सिमटकर, अक्षरों में जम जाती है, तब उसके स्वरूप और प्रभाव में क्या और कितना अन्तर आ जाता है, किताब शुरू करने के साथ यह सवाल बना रहा। लोककथाएं, मुद्रित रूप में इससे पहले फुटकर, जब भी पढ़ा ऐसा कोई सवाल, इतने साफ तौर पर जेहन में नहीं था और संभवतः लेखक के प्रश्न में भी इसी के आसपास की पड़ताल का आग्रह है।

मोटे तौर पर लोककथाएं ऐसी कहानियां है जो शाश्वत, प्राकृतिक स्थितियों और भावों के बिंब पर विकसित होती हैं, अन्य कहानियों का मूल स्रोत भी इससे भिन्न नहीं होता, इसीलिए प्राचीन भारतीय 'वृहत्कथा' भण्डार के जातक, पंचतंत्र और नंदीसूत्र जैसे संग्रह की कहानियों में साम्य मिल जाता है और कुछेक वर्तमान लोककथाओं में भी उनकी छाप आसानी से देखी जा सकती है, लेकिन लोककथा का फलक सदैव अधिक विस्तृत और उदार-उन्मुक्त होता है, क्योंकि ये विशिष्ट देश, काल अथवा पात्र की सीमा में नहीं बंधती, स्थिति के अनुरूप अपना कलेवर बदलकर भी अपनी मौलिकता बनाए रखती हैं। लोककथाएं, सामाजिक मान्यताओं के बजाय मानवीय मूल्यों के प्रति अधिक सचेत रहती हैं और इसी दृष्टि से नीति कथाओं, बोध कथाओं जैसी अन्य कहानियों से अपनी भिन्नता बना लेती हैं। मौखिक परम्परा की लोककथाएं 'बारह कोस पर बानी' से कहीं आगे अपना बाना (शैली) हर कहने वाले के साथ और अर्थ प्रत्येक सुनने वाले के साथ बदलती हैं, पर यह परिवर्तन सिर्फ ऊपरी तौर पर होता है, मूल आत्मा तो सतत्‌ प्रवहमान नदी की तरह एक-रूप अभिन्न होती है, इसीलिए लोककथाएं मुरदा रूढ़ियां और थोथे उपदेश नहीं बल्कि रोचक जीवन्त परम्परा है। 'अस्ति' का सत्य हैं, जो लगातार व्यवहृत रहकर 'भवति' में अपनी रसमय अर्थवत्ता बनाए रखती हैं।

कुछ नमूने देखें कि देथा ने इस बाने का इस्तेमाल किस तरह किया है- 'क्षितिज और चांदनी के सुरक्षित पार्श्व में एक राज्य था। सूर्योदय और सूर्यास्त की किरणों के पालने में झूलता हुआ। ऊषा और संध्या की लाली के बहाने मुस्कुराता हुआ (सपनप्रिया, पृ.-31)। कहानी 'भूल-चूक लेन-देन' की शुरूआत का उद्धरण है- ''समय के अनुकूल बदलती हैं बातें। मौसम के अनुरूप खनकती है रातें। बारह कोस पर बदले बोली। अक्ल की आमद किसने तोली।' तो परमेश्वर सुध-बुध का सार कभी नहीं बिसराये कि हवा, धूप और अंधियारों की शरण में तारों की छांह तले किसी एक गांव में.....।'' 'अस्ति' के रचनात्मक 'भवति' व्यवहार का रस-सौंदर्य इन उद्धरणों में निखरकर आया है।

'सपनप्रिया' की कहानियों में काल का हवाला देने के लिए देथा पारम्परिक 'बहुत पुरानी बात है' जैसे वाक्यों से बचते हैं और स्थान, व्यक्ति-नामों के लिए जातिवाचक संज्ञाओं का इस्तेमाल करते हैं। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि यही उनकी शैली की विशेषता है, जिसमें अपने गांव बोरून्दा में सुनी लोककथाओं का बार-बार संदर्भ बदलकर भी वे अपनी कहानियों को लोककथा के करीब बनाए रखकर, मौलिक रचना करने में सफल होते हैं। उनके पात्र राजा, सेठ, दीवान, साधु, मछुआरा, शेर या आप-करनी राजकुमारी आदि हैं। वे व्यक्ति-नामों से बचते हैं और पात्रों को सर्वनाम या विशेषण के आरोपण से भी बचाए रखते हैं। जातिवाचक संज्ञाओं को पात्र बनाकर वे अपनी कहानियों को सर्वव्यापक बनाते हैं, क्योंकि इन संज्ञाओं की जाति का आधार न तो जन्मना होता है न ही कर्मणा, वह तो सुदीर्घ प्रचलित सामाजिक मान्यताओं का स्वीकृत बिंब होती है।

आर्थिक और सामाजिक समस्याएं, बहुत जल्द मुद्‌दे बन कर, जरूरतमंद धार्मिक-राजनैतिकों द्वारा अपना ली जाती हैं। ऐसी समस्याएं यदि मूल प्रवृत्तिजन्य हों और वह भी भूख जैसी व्यापक, तो वह लोककथा के विस्तृत फलक पर कितनी अर्थपूर्ण हो सकती है और हमारे समाज, परम्पराओं, मूल्य-मान्यताओं पर कितने सवाल खड़ा कर सकती है, यह संग्रह के 'खीर वाला राज्य' कहानी में देखा जा सकता है। कुछ उद्धरण सुनिए, अपच के मरीज राजा से पण्डित कहता है- ''राज्य करना तो आप जैसे उमरावों को ही शोभा देता है और खीर बेचारी की क्या बिसात, मुझ जैसे अभागे भी चट कर जाते हैं।'' प्रजा जोर-जोर से चिल्लाने लगी- ''राजा, सेना और दरबारी खीर खाएं तो भले ही खाएं, पर हमारे लिए नमक रोटी का इंतजाम तो होना ही चाहिए।'' और एक उद्धरण- ''खीर खाने से ही मुझे यह राज्य बकसीस में मिला और खीर खाते-खाते ही छिन जाए तो कोई परवाह नही। मैं तो खीर के अलावा कोई दूसरा प्रपंच जानता ही नहीं।'' यह कहानी लोक कथाओं के रूचि-व्यापकता की शर्त पूरा करती है, किन्तु महाकाव्यीय नियतिबद्ध परिणिति जैसी अन्य शर्तें आदिम भावों के साथ कुछ दूसरी कहानियों में अधिक उभरकर आती है।

संग्रह की एक और उल्लेखनीय कहानी 'मरीचिका' है, जिसमें एक शेर, पशु से धीरे-धीरे मनुष्य और मनुष्य से महामानव की प्रवृत्तियां अपना लेता है, अपनी सीधी और सपाट सोच के चलते, किन्तु इस सिलसिले में उसे 'सभ्य' समाज से दो-चार होना पड़ता है तो उसका गुजारा मुश्किल हो जाता है और वह इस जहरीले वातावरण से वापस लौट जाता है। शेर जिसे कहानी में कहीं सिंह और कहीं नाहर कहा गया है, कहता है- ''मैं फकत मौत ही का नहीं, समूची कुदरत का प्रतिरूप हूं, जिसे दुनिया भूल चुकी है।'' शेर यह भी कहता है कि अन्दरूनी इच्छा हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं। मैने हजारों हजार पुरखों की बान छोड़ी ही है.... और अब चुपके-चुपके घास खाने का अभ्यास भी कर रहा हूं। दीवान की पत्नी को अपलक दृष्टि से देखकर शेर कहता है- ''आपका अनिन्द्य रूप निहार कर अब मैं सुख से मर सकता हूं। आपके बहाने समूची प्रकृति ही मेरे सामने झिलमिला रही है।'' और उसकी ''आंखों के सामने मेरी साथिन (शेरनी) और दीवान की पत्नी का चेहरा दोनों साथ-साथ ही चमक रहे थे।''

संग्रह की सभी कहानियों की चर्चा और उद्धरण संक्षेप में भी यहां संभव नहीं है, किन्तु कहानियों का मूड 'मायाजाल' तक अधिक सहज और इसके बाद का सायास जान पड़ता है। इसके बावजूद भी एक पाठक की हैसियत से, आजकल जो कहानियां चाल-चलन में हैं और जितना उनका आतंक है, उस माहौल में न सिर्फ 'सपनप्रिया' बल्कि देथा का पूरा रचना-संसार इतना रोचक और आकर्षक है, इतना तरल, सुकूनदेह है कि उसमें बार-बार डुबकी लगाई जा सकती है। यहां 'गिरवी जीवन' में लोकप्रिय देवता महादेव-पार्वती की उपस्थिति और गणेश को ब्याह की पहली कुंकुम-पत्रिका चढ़ाये जाने की परम्परा के लिए रची गई कथा तथा इसके साथ 'आसीस' के चापलूसी पसंद, महल तक सीमित रहने वाले राजा के राजकीय व्यवस्था पर रची कथा और 'मनुष्यों का गड़रिया' के खुदा की खुदाई का उल्लेख संकलन की अलग-अलग रंग-छटाओं की दृष्टि से आवश्यक है। कुल मिलाकर इस जिल्द में देथा, दर्शन के स्तर पर जड़-चेतन द्वैत के संदेह तक पाठक को पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं तो अभिव्यक्ति के स्तर पर भाषा-बोली के द्वन्द्व के आगे-पीछे संगीत से लेकर बायनरी प्रणाली तक सोच की गुंजाइश बना देते हैं।

अन्ततः एक दीगर लघु कथा का स्मरण- 'इक्कीसवीं सदी में मृत्यु और जन्म, यानि पूरे जीवन पर विजय पा ली गई न कोई मरता, न कोई पैदा होता। कहीं कोई गड़बड़ हुई और एक बच्चा पैदा हो गया, उस बच्चे को लेकर उसके अभिभावक एक संगीत सभा में पहुंचे। सभा में थोड़ी देर बाद बच्चा रोने लगा और सभी श्रोता एक साथ सभा के लिए आयोजित संगीत को रूकवाकर इस बच्चे के अकस्मात्‌ विलाप को सुनते रहे।' देथा का विलाप-संगीत, असंगत विविधताओं पर आधारित लय और मिठास का सहज रस है।

दसेक साल से अधिक अरसा बीता, बिलासपुर में 'पाठक मंच' पुनर्जीवित हुआ, मैंने औपचारिकतावश शुभकामनाएं दीं तो जवाब में यह पुस्‍तक 'सपनप्रिया' थमा दी गई, इस दबावपूर्ण अप्रत्‍याशित प्रस्‍ताव सहित कि अगली बैठक में इस पुस्‍तक की चर्चा मेरे आधार वक्‍तव्‍य पर होगी। संकोचवश और पुस्‍तक पढ़ने की चाह में ऐसा लेखन अभ्‍यास न होने के बावजूद, यह सोच कर रख लिया कि पढ़ने के बाद, मुझसे यह नहीं हो सकेगा, कह कर एकाध दिन में ही लौटा दूंगा। लेकिन पुस्‍तक पढ़ कर पूरे उत्‍साह से एक लंबा नोट सहजता से लिख लिया, उसका लगभग एक तिहाई हिस्‍सा यह है। वही हिस्‍सा, जो पाठक मंच में पढ़ा गया, बाकी का अब सिर्फ यादों में जुगाली के लिए। देथा जी पर कुछ लिखना 'दुविधा' छोड़ कर संभव हुआ। यह शायद अब तक अप्रकाशित भी रहा है।