Wednesday, January 23, 2013

काल-प्रवाह

• क्रियमाण-वर्तमान की सत्ता क्षितिज की भांति है, आकाश जैसे प्रारब्‍ध-भविष्य और पृथ्वी जैसे संचित-भूत का आभासी संगम। जड़ भूत और अपरिभाषित भविष्य के बीच अभिव्यक्त (आभासी) वर्तमान। 'अर्थसत्‍ता' की जमीन पर धावमान 'राजसत्‍ता' के रथ पर 'धर्मसत्‍ता' का छत्र।

• इतिहास जो बीत गया, जो था और भविष्य जो आयेगा, जो होगा, इस दृष्टिकोण से देखने पर इतिहास के साथ जैसी तटस्थता और निरपेक्षता बरती जाती है वह कभी-कभार लावारिस लाश के पोस्‍टमार्टम जैसी निर्ममता तक पहुंच जाती है। इतिहास की जड़ता और संवेदना, वस्तुगत और विषयगत-व्यक्तिनिष्ठ के बीच का संतुलन कैसे हो? इतिहास को महसूस करने के लिए दृष्टिकोण यदि इतिहास, जो कल वर्तमान था और भविष्य जो कल वर्तमान होगा, इसे संवेदनशील बना देता है।

• इतिहास के लिए यदि एक पैमाना ईस्वी, विक्रम, शक, हिजरी या अन्य किसी संवत्सर जैसा कोई मध्य बिन्दु है, जिसके आगे और पीछे दोनों ओर काल गणना कर इतिहास का ढांचा बनता है। एक दूसरा तरीका भी प्रयुक्त होता है ईस्‍वी पूर्व-बी.सी. और ईस्वी-ए.डी. के अतिरिक्त बी.पी. before present, आज से पूर्व। अधिक प्राचीन तिथियों, जिसमें ± 2000 वर्षों का हिसाब जरूरी नहीं, उनकी गिनती बी.पी. में कर ली जाती है। तब सैद्धांतिक रूप से ही सही और इतिहास नहीं तो अन्य वस्तुस्थितियों के लिए क्या एक तरीका यह भी हो सकता है कि गणना शुरू ही वहां से हो जहां से काल शुरू होता हो या वहां से उलट गिनती करें जो अंतिम बिंदु हो-

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काल शुरू             ईसा           वर्तमान          अंतिम बिंदु 

• ऐसे बिन्दुओं की खोज सदैव मानव जाति ने की है, जॉर्ज कैन्‍टर के 'अनंतों के बीच के अनंत' की तलाश की तरह या हमारा भविष्य-पुराण (भविष्‍य भी पुराना भी), शायद इसी का परिणाम है, भारतीय चिन्तन पद्धति में वृत्तात्मक गति, मण्डल जैसी अवधारणाएं यहीं से विकसित जान पड़ती है।

• तो यदि उन आरंभिक/चरम बिन्दु को प्राप्त नहीं किया जा सकता फिर भी उसकी खोज आवश्यक है क्या? शायद यही खोज हमें नियति-बोध कराती है और अपने दृष्टिकोण को समग्र की सम्पन्नता प्रदान करती है, संवेदना प्रदान करती है, किन्तु संतुलन के बजाय इसकी अधिकता होने पर इतिहास बोध की हीनता से आरोपित होने के साथ नियतिवादी बन जाने का रास्ता अनचाहे खुलने लगता है।

• अस्तित्वमान को सिर्फ इसलिए प्रश्नातीत नहीं माना जा सकता कि वह 'घटित हो चुके का परिणाम' है, जिस तरह आगत को 'अभी तो कुछ हुआ नही' कह कर नहीं छोड़ा जाता। इतिहास क्यों? इतिहास के लिए पीछे देखना होता है तो आगे देखने की दृष्टि भी वहीं से मिलती है। इतिहास, समाज का ग्रंथागार जो है।

• इतिहास अभिलेखन का आग्रह भी तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीन जाने का आभास होने लगे, वह मुठ्‌ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय या फिर तब भी ऐसा आग्रह भाव बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो यानि जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशास्ति रचना, लेकिन विसंगति यह है कि ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव ही सापेक्ष हो जाता है यह 'इतिहास' की एक विकट समस्या भी कही जा सकती है कि उसे साथ-साथ, आगे से या पीछे से किसी (समकोण, अधिककोण या न्यूनकोण) कोण से देखें वह मृगतृष्णा बनने लगता है। ''इतिहास से बड़ा कोई झूठ नही और कहानी से बड़ा कोई सच नही'' कथन संभवतः ऐसे ही विचारों की पृष्ठभूमि पर उपजा हो। छत्‍तीसगढ़ी कहावत है- 'कथा साहीं सिरतो नहीं, कथा साहीं लबारी', अर्थात् कथा जितना सच्‍चा कुछ नहीं, लेकिन है कथा जैसा झूठा।

• हमारी सोच और उसका विस्तार, हमारे राजमर्रा की बातचीत और उसकी व्यापकता में पात्र फिर देश और उसके बाद अंतिम क्रम पर काल है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि सोच की गहराई में सबसे नीचे अवधारणात्मक काल ही हो सकता है, उसके ऊपर भौतिक देश और सबसे सतही स्तर पर सजीव पात्र होना ही स्वाभाविक है, किन्तु इसके विपरीत और साथ-साथ पात्र में भौतिक स्वरूप और अवधारणा का अंश प्रकटतः सम्मिलित है, देश में उसके भौतिक विस्तार के साथ अवधारणात्मक विचार निहित हैं जबकि काल की सत्ता देश और पात्र संदर्भपूर्ण विचारों या बातचीत में आकार ग्रहण कर जीवन्त हो पाता है। काल की स्वत्रंत और निरपेक्ष सत्ता वैचारिक स्तर पर भी असंभव नही तो दुष्कर अवश्य है।

• इतिहास कालक्रम का पैमाना है, लेकिन किसी पैमाने पर माप लेना, किसी वस्तु को जान लेने की बुनियादी और अकेली शर्त जैसा तय मान लिया जाता है (जैसे व्यक्ति का नाम, कद, वजन या किसी स्थान की दूरी और स्मारक की प्राचीनता) जबकि किसी को जान लेने में, चाहे वह सजीव पात्र हो, भौतिक देश हो या अवधारणात्मक काल, यह एक शर्त और वह भी गैर जरूरी की हद तक अंतिम, उसे माप लेने की हो सकती है।

• परम्परा में नदी-सा सातत्य भाव है। परम्परा, रूढ़ि नहीं है, वह केवल प्राचीनता भी नहीं है, न ही वह इतिहास है, परम्परा की सार्थकता तो उसके पुनर्नवा होने में ही है। गति का रैखिक या विकासवादी दृष्टिकोण उसे अपने मूल से विलग होकर दूर होते देखता है लेकिन वृत्तायत दृष्टिकोण से परिवर्तनशील किन्तु मूल से निरन्तर सामीप्य और समभाव बनाये पाता है।

• परम्परा का अभिलेखन अन्जाने में, तो कभी षड़यंत्रपूर्वक उस पर आघात का हथियार बना लिया जाता है। परम्परा को अभिलिखित कर उसी परम्परा की अगली पीढ़ी को उसके पुराने अभिलिखित स्वरूप का आईना दिखाकर (कहना कि यह है तुम्हारा असली चेहरा) उसे झूठा साबित करना आसान उपाय है, शायद तभी कहा गया है कि ''शैतान भी अपने पक्ष में बाइबिल के उद्धरण ला सकता है।''

• आगे (?) बढ़ते समय के साथ विकास को अनिवार्यतः जोडकर देखा जाता है, और विकास का अर्थ लगाया जाता है वृद्धि, यानि 1 से 2 और 2 से 4 किन्तु यह स्वाभाविक नही है स्वाभाविक है परिवर्तन जिसे हम अपने बनाए दुनियावी पैमाने पर आगे पीछे माप-गिन लेते है, यह आंकडों के व्यावहारिक इस्तेमाल में तो संभव है किन्तु इसे तत्वतः कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

पिछली पोस्‍ट की तरह यह भी स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का दूसरा हिस्‍सा (पहला हिस्‍सा – पिछली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।

Tuesday, January 15, 2013

आगत-विगत

• इतिहास की पढ़ाई का हिस्सा है, इतिहास-लेख (Historiography)। जिसने इतिहास की पाठ्‌यपुस्तकीय पढ़ाई न की हो या की हो और यह पाठ्‌यक्रम में न रहा हो, तो भी इतिहास पर आड़े-तिरछे सवाल मंडराते जरूर हैं और इतिहास को समझने-पकड़ने के लिए, अपनी सोच को, अपने चिंतन को, चाहे वह अनगढ़ हो, शब्द दे कर उसका धरन-धारण बेहतर हो पाता है।

• प्रकृति का रहस्य अक्सर उसकी अभिव्यक्ति में गहराता है, उसी तरह इतिहास, कई बार पुरातात्विक प्राप्तियों (OOP, out-of-place) और उनकी व्याख्‍या में। इतिहास अपने को दुहराए न दुहराए, उसके पुनर्लेखन की आवश्यकता बार-बार होती है। जीवन-वर्तमान, मृत्‍यु-इतिहास। तथ्‍य, सत्‍य और कथ्‍य का फर्क। मौत, फकत मौत के तथ्‍य का सत्‍य हत्‍या, आत्‍महत्‍या, फांसी-मृत्‍युदंड, दुर्घटनाजन्‍य या स्‍वाभाविक मृत्‍यु, कुछ भी हो सकता है और कथ्‍य- 'नैनं छिन्‍दन्ति ...' या‍ 'हमारे बीच नहीं रहे' या 'अपूरणीय क्षति' या 'आत्‍मा का परमात्‍मा में मिलन' या 'चोला माटी का' या 'पंचतत्‍व में विलीन' या 'रोता-बिलखता छोड़ गए' या 'धरती का बोझ कम हुआ।

• पुराविद्‌, आधुनिक पंडित-वैज्ञानिक जैसे हैं, जिसकी बात पर कम लोग ही तर्क करते हैं, आसानी से मान लेते हैं, चकित होने की अपेक्षा सहित उसकी ओर देखते हैं। इस अपेक्षा की पूर्ति आवश्यक नहीं, बल्कि विश्वासजनित ऐसे अकारण मिलने वाले सम्मान के प्रति जवाबदेही तो बनती है।

• पुरातत्व, घर का ऐसा बुजुर्ग, जिसका सम्मान तो है, ''हमारे देश का गौरवशाली अतीत और महान संस्‍कृति, हमारे धरोहर और हमारी सनातन परम्‍परा''... लेकिन परवाह शायद नहीं। कई बार मुख्‍य धारा में आ कर वह आहत होने लगता है, तब लगता है कि हाशिये में रह कर उपेक्षित नहीं, बेहतर सुरक्षित है। वैसे अब हाशिये का इतिहास, अवर, उपाश्रयी, सबआल्टर्न शब्दों के साथ, अलग (प्रतिवादी) अवधारणा और दृष्टिकोण है।

• पुरातत्व का संस्कार- 'जो अब नहीं रहा' उसके लिए हाय-तौबा के बजाय 'जो है, जितना है', उसे बचाए रखने का उद्यम अधिक जरूरी है, क्योंकि बचाने के लिए भी इतनी सारी चीजें बची हैं कि प्राथमिकता तय करना जरूरी होता है। हर व्यक्ति के, अपने आसपास ही इतना कुछ जानने-बूझने को, सहेजने-संभालने को हैं कि क्षमता और संसाधन सीमित पड़ने लगता है। खंडहरों के साथ समय बिताते हुए पसंदीदा और जरूरी का टूटना, खोना, छूट जाना महसूस तो होता है, लेकिन इसको बर्दाश्‍त करने के लिए मन धीरे-धीरे तैयार भी होता जाता है। अवश्‍यंभावी नश्‍वर। जैसे डाक्‍टरों की तटस्‍थता कई बार निर्मम लगती है।

• इतिहास यदि आसानी से बनने लगे तो उसे समय की परतें आसानी से ढकने भी लगती हैं। ध्‍वंस भी सृजन की तरह, बिना शोर-शराबे के, समय के साथ स्‍वाभाविक होता है, बल्कि निर्माण कई बार रस्‍मी ढोल-ढमाके के साथ और उद्यम से संभव होता है। शाश्‍वत-नश्‍वर के बीच प्रलय-लय-विलय और प्रकृति-कृति-विकृति। ''प्रकृतिर्विकृतिस्‍तस्‍य रूपेण परमात्‍मनः।'' टाइम मशीन के दुर्लभ अनुभव की कल्‍पना, उत्खनन के दौरान काल में पर्त-दर-पर्त उतरने का वास्‍तविक अनुभव, सच्‍चा रोमांच। इतिहास जानना, भविष्य जानने के प्रयास से कम रोमांचक नहीं होता।

• सभ्यता का इतिहास, पहाड़ों की कोख-कन्दरा में पलता है। सभ्यता-शिशु, गिरि-गह्वर गर्भ से जन्‍मता है। ठिठकते-बढ़ते तलहटी तक आता है, युवा से वयस्क होते मैदान में कुलांचे भरने लगता है। (अगल-बगल वन-अरण्‍य में दर्शन, चिंतन, वैचारिक सृजन और शिक्षण होता रहता है।) वयस्क से प्रौढ़ होते हुए नदी तट-मुहाने पर आ कर, उद्गम से बहाव की दिशा में आगे बढ़ता जाता है, संगम पर तट भी बदल पाता है। अपने अलग-अलग संस्करणों में परिवर्तित होता कायम रहता है, कभी स्थान बदल कर, कभी रूप बदल कर। बहती नदी, समय का रूपक है?

• प्राकृत-पालि या लौकिक संस्‍कृत का दो हजार साल से भी अधिक पुराना साहित्‍य, जातक या पंचतंत्र पढ़ते हुए यह लगातार महसूस होता है कि संसार में यातायात, संचार साधनों, भौतिक स्‍वरूप में जो भी परिवर्तन आया हो, हमारी दृष्टि, हमारा मन वही है।

• हर कहानी की शुरुआत होती है- 'किसी समय की बात है, एक देश में राजा या राजकुमारी या किसान या व्यापारी या ब्राह्मण या सात भाई थे' या कि 'बहुत पुरानी बात है, फलां शहर में ...', ज्यों अंग्रेजी में 'लांग लांग अ गो / वन्स अपान अ टाइम, देअर वाज अ किंग ...' यानि हर कहानी बनती है देश, काल और पात्र से। 'देश', जड़ है, धरती की तरह, भूत-इतिहास। 'काल', अवधारणा है, हवा की तरह, संभावना-भविष्य। और 'पात्र', मनुष्य है, क्षितिज की तरह, आभासी-वर्तमान। जातक का जन्‍म फलां स्‍थान में, अमुक समय हुआ। तीन आयाम मिले, तस्‍वीर ने आकार ले लिया, बात की बात में रंग भरा और बन गई जन्‍म-कुंडली। बात ठहराने के लिए जरूरत होती है इन्हीं तीन, देश-काल-पात्र की। कहानी हो या इतिहास, होता इन्हीं तीन का समुच्चय है। जहां यह नहीं, वह शब्दातीत-शाश्वत।

• मानविकी - दर्शन, अध्यात्म, कला, भाषा, नैतिकता, मूल्य, मानवता - भविष्य।
  सामाजिक विज्ञान - अर्थ, राजनीति, समाज, पूर्वापर काल - वर्तमान।
  प्राकृतिक विज्ञान – भू-भौमिकी, गणना, भौतिकी - भूत।
Natural Science
Social Science
Bio-science
Psychology-Philosophy
Biology
Sociology
Chemistry
Economics-Political Science
Physics
History-Geography
Maths
Language

• पुरातत्‍व की सुरंग और इतिहास की पगडंडियों पर एकाकी चलते, राह दिखलाते तर्क-प्रमाणों की संकरी गलियों में सरकते, कभी आसपास गुजरते लोक-विश्‍वास के जनपथ पर साथ आ कर बहुमत बन जाना जरूरी होता है, क्‍योंकि जो लिख दिया गया वह शास्‍त्र बना, दर्ज हुआ वह इतिहास बन कर समय (और दूरी) को लांघ गया, लेकिन कई बार इस तरह तय किए सफर का मुसाफिर अपने परिवेश में बेगाना हो जाता है। शोध, अपने संदेहों पर भरोसा करना सिखलाता है, अनुसंधान का परिणाम अविश्‍वसनीय के प्रति आश्‍वस्‍त करता है, आत्‍म-विश्‍वास पैदा करने में मददगार होता है।

• इतिहास, विषय के रूप में एक अनुशासन है और प्रत्येक अनुशासन का विशिष्ट होते, उसका महत्व होता है तो उसकी अपनी सीमाएं भी होती हैं, जिस तरह किसी अपराधी को सबूतों के अभाव में सजा नहीं दी जा सकती, उसी तरह पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इतिहास में भी, विश्वास और मात्र निजी सूचना के आधार पर, स्थापनाएं मान्य नहीं होतीं। यह भी ध्यान रखने की बात है कि अपने विश्वास को इतिहास की कसौटी पर अनावश्यक कसने का प्रयास न करें, यह उसी तरह अनावश्यक है, निरर्थक साबित होगा जैसे अपनी मां के हाथ बने व्यंजन के सुस्वादु होने, अपनी पसंद को प्रमाणित करने का तर्क और प्रमाण देना। आशय यह कि किसी विषय की सीमा उसकी दिशा निर्धारित करती है, मर्यादा उसे संकुचित कर उसमें सौंदर्य भरती है।

यह स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का पहला हिस्‍सा (दूसरा हिस्‍सा – अगली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।
'जनसत्‍ता' 23 दिसंबर 2013 के
संपादकीय पृष्‍ठ पर यह पोस्‍ट 

Thursday, January 10, 2013

अनूठा छत्तीसगढ़

प्राचीन दक्षिण कोसल, वर्तमान छत्तीसगढ़ एवं उससे संलग्न क्षेत्र के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रथम चरण है- प्रागैतिहासिक सभ्यता के रोचक पाषाण-खंड, जो वस्तुतः तत्कालीन जीवन-चर्या के महत्वपूर्ण उपकरण थे। लगभग इसी काल में यानि तीस-पैंतीस हजार वर्ष पूर्व, बर्बर मानव में से किसी एक ने अपने निवास- कन्दरा की भित्ति पर रंग ड़ूबी कूंची फेर कर, अपने कला-रुझान का प्रमाण दर्ज किया। मानव-संस्कृति की निरंतर विकासशील यह धारा ऐतिहासिक काल में स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण- मंदिर एवं प्रतिमा, सिक्के, अभिलेख आदि में व्यक्त हुई है। विभिन्न राजवंशों की महत्वाकांक्षा व कलाप्रियता से इस क्षेत्र में सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इतिहास का स्वर्ण युग घटित हुआ और छत्तीसगढ़ का धरोहर सम्पन्न क्षेत्र, पुरातात्विक महत्व के विशिष्ट केन्द्र के रूप में जाना गया।

खोज और अध्ययन के विभिन्न प्रयासों के फलस्वरूप यह क्षेत्र, पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। शैलाश्रयवासी आदि-मानव के प्रमाण, रायगढ़ के सिंघनपुर व कबरा पहाड़ और कोरिया के घोड़सार और कोहबउर में ज्ञात हैं। ऐसे ही प्रमाण राजनांदगांव, बस्तर और रायगढ़ अंचल के अन्य स्थलों में भी हैं। लौहयुग के अवशेषों की दृष्टि से धमतरी-बालोद मार्ग के विभिन्न स्थल यथा- धनोरा, सोरर, मुजगहन, करकाभाट, करहीभदर, चिरचारी और धमतरी जिले के ही लीलर, अरोद आदि में सैकड़ों की संख्‍या में महापाषाणीय स्मारक- शवाधान हैं।

इतिहास-पूर्व युग को इतिहास से सम्बद्ध करने वाली कड़ी के रूप में इस अंचल के परिखायुक्त मिट्‌टी के गढ़ों का विशेष महत्व है। ऐसी विलक्षण संरचना वाले विभिन्‍न आकार-प्रकार के गढ़ों को महाजनपदीय काल के पूर्व का माना गया है। जांजगीर-चांपा जिले में ही ऐसे गढ़ों की गिनती छत्तीस पार कर जाती है, इनमें मल्हार का गढ़ सर्वाधिक महत्व का है। इन गढ़ों के विस्तृत अध्ययन से इनका वास्तविक महत्व उजागर होगा, किन्तु प्रदेश की पुरातात्विक विशिष्टता में मिट्‌टी के गढ़ों का स्थान निसंदेह महत्वपूर्ण है।

प्रदेश की विशिष्ट पुरातात्विक उपलब्धियों में नन्द-मौर्य के पूर्व काल से संबंधित आहत-मुद्राएं बड़ी संख्‍या में तारापुर और ठठारी से प्राप्त हैं। मौर्य व उनके परवर्ती काल का महत्वपूर्ण स्थान सरगुजा जिले की रामगढ़ पहाड़ी पर निर्मित शिलोत्खात, अभिलिखित गुफा है, जो सुतनुका देवदासी और उसके प्रेमी देवदीन नामक रूपदक्ष के अभिलेख सहित, प्राचीनतम रंगमंडप के रूप में प्रतिष्ठित है। सातवाहनकालीन इतिहास साक्ष्यों में जांजगीर-चांपा जिले का किरारी काष्ठ-स्तंभलेख इस अंचल की विशिष्ट उपलब्धि है, जो काष्ठ पर उत्कीर्ण प्राचीनतम अभिलेख माना गया है। लगभग इसी काल के दो अन्य महत्वपूर्ण अभिलेखों में मल्हार की प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, जिस पर प्रतिमा निर्माण हेतु दान का उल्लेख उत्कीर्ण है तथा अन्य अभिलेख, सक्ती के निकट ऋषभतीर्थ-गुंजी के चट्‌टान-लेख जिसमें सहस्र गौ दानों के विवरण सहित, कुमारवरदत्तश्री नामोल्लेख है। इसी काल के स्थानीय मघवंशी शासकों के सिक्के और रोमन सिक्कों की प्राप्ति उल्लेखनीय है।

गुप्त शासकों के समकालीन छत्तीसगढ़ में शूरा अथवा राजर्षितुल्य कुल तथा मेकल के पाण्डु वंश की जानकारी प्राप्त होती है। इसमें राजर्षितुल्य कुल का एकमात्र ताम्रपत्र आरंग से प्राप्त हुआ है। इसके पश्चात्‌ का काल क्षेत्रीय राजवंश- शरभपुरीय अथवा अमरार्यकुल से सम्बद्ध है। इस काल- लगभग पांचवीं-छठी सदी ईस्वी के ताला के दो शिव मंदिर तथा रूद्र शिव की प्रतिमा तत्कालीन शिल्‍प के अनूठे उदाहरण हैं। इसी राजवंश के प्रसन्नमात्र व अन्‍य शासक के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्के तकनीक की दृष्टि से अद्वितीय हैं, नल शासकों के उभारदार ठप्‍पांकित सिक्‍के बस्‍तर से मिले हैं। इस कालखंड में राजिम में उपलब्ध शिल्प तथा सिसदेवरी, गिधपुरी, रमईपाट के अवशेष भी उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार बस्तर के गढ़ धनोरा के मंदिर, मूर्तियां और भोंगापाल का बौद्ध चैत्य, भारतीय कला की महत्वपूर्ण कड़ियां हैं।

इसके पश्चात्‌ के सोम-पाण्डुवंशी शासकों के काल में तो मानों छत्तीसगढ़ का स्वर्ण युग घटित हुआ है। ईंटों के मंदिरों में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, ईंटों के प्राचीन मंदिरों में भारतीय स्थापत्य का सर्वाधिक कलात्मक व सुरक्षित नमूना है। साथ ही पलारी, धोबनी, खरौद के ईंटों के मंदिर तारकानुकृति स्थापत्य योजना वाले, विशिष्ट कोसली शैली के हैं। इसी वंश के महाशिवगुप्त बालार्जुन के सिरपुर से प्राप्त ताम्रपत्रों के नौ सेट की निधि, एक ही शासक की अब तक प्राप्त विशालतम ताम्रलेख निधि है साथ ही तत्कालीन मूर्तिकला का शास्त्रीय और कलात्मक प्रतिमान दर्शनीय है। सरगुजा के डीपाडीह और महेशपुर तो जैसे प्राचीन मंदिरों के नगर हैं।

दसवीं से अठारहवीं सदी ईस्वी तक यह अंचल हैहयवंशी कलचुरियों की रत्नपुर शाखा की विभिन्न गतिविधियों-प्रमाणों से सम्पन्न है। विश्व इतिहास में यह राजवंश सर्वाधिक अवधि तक अबाध शासन का एक उदाहरण है। कलचुरि राजाओं के शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, मंदिर व प्रतिमाएं प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। संभवतः देश का अन्य कोई क्षेत्र अभिलेख व सिक्कों की विविधता और संख्‍या की दृष्टि से प्राप्तियों में इस क्षेत्र की बराबरी नहीं कर सकता।

पुरातात्विक स्थलों की दृष्टि से प्रसिद्ध ग्राम सिरपुर प्राचीन राजधानी के वैभव प्रमाणयुक्त है ही, मल्हार का भी विशिष्ट स्थान है। इस स्थल के राजनैतिक-प्रशासनिक मुख्‍यालय होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता, किंतु मल्हार व संलग्न ग्रामों- बूढ़ीखार, जैतपुर, नेवारी, चकरबेढ़ा, बेटरी आदि विस्तृत क्षेत्र में लगभग सातवीं-आठवीं ईस्वी पूर्व से आरंभ होकर विविध पुरावशेष- आवासीय व स्थापत्य संरचना, अभिलेख, सिक्के, मनके, मृणमूर्तियां, मिट्‌टी के ठीकरे, मंदिर, मूर्तियां, मुद्रांक जैसी सामग्री निरंतर कालक्रम में प्राप्त हुए हैं।

इस प्रकार अभिलेख, सिक्कों का वैविध्यपूर्ण प्रचुर भण्डार, प्राचीनतम रंगशाला, प्राचीनतम काष्ठ स्तंभलेख, प्राचीनतम विष्णु प्रतिमा, उभारदार सिक्के, ताला आदि स्थलों के मंदिरों का अद्वितीय स्थापत्य, मूर्तिशिल्प और पुरातात्विक स्थलों की संख्‍या और विशिष्टता आदि के कारण देश के पुरातत्व में छत्तीसगढ़ का स्थान गौरवशाली और महत्वपूर्ण है।

Monday, January 7, 2013

कलचुरि स्थापत्य: पत्र

बात रतनपुर के तीन शिल्पखंडों से आरंभ करने में आसानी होगी, जो एक परवर्ती मंदिर (लगभग 15वीं सदी ई.) में लगा दिये गये थे। इस मंदिर 'कंठी देउल' का अस्तित्व वर्तमान में बदला हुआ है, क्योंकि यह एएसआइ द्वारा अन्य स्थान पर पुनर्संरचना की प्रक्रिया में है, इन शिल्पखंडों में से एक 'पार्वती परिणय' प्रतिमा है, जो अब रायपुर संग्रहालय में है। दो अन्य- 'शालभंजिका' एवं 'ज्योतिर्लिंग-ब्रह्‌मा, विष्णु प्रतिस्पर्धा' हैं। ये तीनों शिल्पखंड लगभग 9 वीं सदी ई. में रखे जा सकते हैं।
कंठी देउल, रतनपुर
रतनपुर शाखा के कलचुरियों की कला देखने के लिए इसकी पृष्ठभूमि में आठवीं सदी ई. तक के पाण्‍डु-सोमवंश की कला परम्परा है। नवीं सदी ई. की बहुत कुछ सामग्री उपलब्ध नहीं है, दसवीं सदी ई. के कुछ उदाहरण मिलते हैं, फिर ग्यारहवीं सदी के कलचुरि स्थापत्य-कला का भंडार इस क्षेत्र (छत्तीसगढ़ या दक्षिण कोसल) में है, वैसे इस शैली की अधिकांश सामग्री को बारहवीं सदी में रखना अधिक उपयुक्त है, कुछ उदाहरण तेरहवीं सदी के भी हैं, जो अवसान काल के माने जा सकते हैं। इस तरह कलचुरि कला शैली का आरंभ ग्यारहवीं सदी का है, विकास-समृद्धि बारहवीं सदी की और ह्रास तेरहवीं सदी में। इन काल खण्डों की अलग-अलग चर्चा उदाहरण सहित करने से यह स्पष्ट हो सकेगा।

चर्चा का पहला खंड ऐसी कलाकृतियां हैं, जिनमें पाण्‍डु-सोमवंशी शैली की स्पष्ट छाप देशी-पहचानी जा सकती है और जिनका काल नवीं सदी ई. निश्चित किया जा सकता है, इनमें रतनपुर के उपरिलिखित तीन शिल्पखंड तथा रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश द्वार हैं।

दूसरा खंड दसवीं सदी (विशेषकर उत्तरार्द्ध) से संबंधित है, जिसमें पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर है तथा दूसरा उदाहरण घटियारी का शिव मंदिर की मलबा-सफाई से प्राप्त प्रतिमाएं है। घटियारी का मंदिर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में किसी राजवंश (फणिनाग?) से संबंधित नहीं किया जा सकता।

तीसरे खंड ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में कलचुरि शिल्प और मंदिरों की श्रृंखला है, जिनका आरंभ तुमान से होता है, तुमान मंदिर का काल ग्यारहवीं सदी है। बारहवीं सदी के ढेर सारे उदाहरण हैं, जिनमें जांजगीर और शिवरीनारायण के दो-दो मंदिर, नारायपुर का मंदिर युगल, आरंग का भांड देवल (जैन मंदिर, भूमिज शैली), गनियारी, किरारीगोढ़ी, मल्हार के दो मंदिर आदि तथा रायपुर संभाग सीमा के कुछ मंदिर हैं।

चौथे खंड में तेरहवीं सदी के मंदिर हैं, जिनमें सरगांव का धूमनाथ मंदिर, मदनपुर से प्राप्त मंदिर अवशेष, धरहर (राजेन्द्रग्राम, जिला शहडोल) का मंदिर है।

तीसरे खंड के मंदिरों की कुछ विशिष्टताओं की थोड़ी और चर्चा यहां होनी चाहिये। अनियमित ढंग से शुरू करने पर तुमान का मंदिर और मल्हार के केदारेश्वर (पातालेश्वर) मंदिरों में मंडप और गर्भगृह समतल पर नहीं है। गर्भगृह बिना जगती के सीधे भूमि से आरंभ होकर उपर उठता है, जबकि मंडप उन्नत जगती पर है, (दोनों में अब जगती ही शेष है, मंडप का अनुमान मात्र संभव है) अतः पूरी संरचना विशाल जगती पर निर्मित जान पड़ती है। इस विशिष्टता के फलस्वरूप मल्हार का गर्भगृह निम्नतलीय है, किन्तु तुमान में ऐसा नहीं है (यहां अमरकंटक के पातालेश्वर का उल्लेख हो सकता है।) तुमान के द्वार-प्रतिहारियों और नदी-देवियों में त्रिपुरी कलचुरियों की शैली की झलक है, इस शिव मंदिर के द्वार शाख में दोनों ओर क्रमशः 5-5 कर विष्णु के दसों अवतार अंकित है। समतल पर विमान और मंडप का न होना किरारीगोढ़ी में भी विद्यमान है। (पाली, नारायणपुर और नारायणपाल मंदिरों में मंडप है।)

द्वारशाखों का सम्मुख और पार्श्व की चर्चा भी करनी चाहिये, रतनपुर किला में अवशिष्ट (या अन्य किसी स्थान से लाये गये) मात्र प्रवेश द्वार के सम्मुख में लता-वल्ली व सरीसृप का अंकन पुरानी रीति की स्मृति के कारण हुआ जान पड़ता है, इसलिये इसका काल निश्चित तौर पर नवीं सदी का उत्तरार्द्ध माना जाना उपयुक्त नहीं है यह और परवर्ती हो सकता है। शाख सामान्यतः विकसित नवशाख हैं, जिनमें दोनों ओर समान आकार की तीन-तीन आकृतियां (दो-दो प्रतिहारी व एक-एक नदी-देवियां) हैं और जिनका आकार लगभग पूरी ऊंचाई से दो-तिहाई या अधिक है। यह इन मंदिरों की सामान्य विशेषता बताई जा सकती है। शाखों के वाह्य पार्श्व तथा अंतःपार्श्व (द्वार में प्रवेश करते हुए दोनों बगल) के कुछ उल्लेख आवश्यक हैं।

रतनपुर किला के अवशिष्ट प्रवेश द्वार के वाह्य पार्श्व में कथानकों ('रावण का शिरोच्छेदन व शिवलिंग को अर्पण', नंदी पूजा आदि) का अंकन है। रतनपुर महामाया मंदिर (14-15वीं सदी) के द्वारशाखों पर अपारंपरिक ढंग से कलचुरि नरेश बाहरसाय के अभिलेख दोनों ओर हैं। जांजगीर के मंदिरों में से विष्णु मंदिर में वाह्य पार्श्व युगल अर्द्धस्तंभों का है (नारायणपुर में भी), जिसमें धनद देवी-देवता तथा संगीत-समाज अंकित है, वहीं जांजगीर के दूसरे मंदिर, शिव मंदिर में इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर कथानक व शिवपूजा के दृश्य भी हैं।

गनियारी के मंदिर के इसी तरह के अर्द्धस्तंभों पर हीरक आकृतियां तथा पुष्प अलंकरण है। प्रवेश द्वार के अंतःपार्श्व अधिकांश सादे हैं, किन्तु गनियारी में सोमवंशी स्मृति है, अर्थात इस स्थान पर सोमवंशियों में एक पूर्ण व दो अर्द्ध उत्फुल्ल पद्य अंकन हुआ है, गनियारी में पांच-छः पूर्ण उत्फुल्ल पद्य आकृतियां इस स्थान पर अंकित हैं, अंतःपार्श्वों पर कथानक व देव प्रतिमाओं के अंकन की परम्परा ताला, देवरानी मंदिर और मल्हार, देउर मंदिर में है, इनमें द्वारशाख का अंतःपार्श्व सम्मुख से अधिक महत्वपूर्ण है, इसीका अनुकरण मल्हार के केदारेश्वर तथा शिवरीनारायण के केशव नारायण मंदिर में है। यहां द्वारशाख सम्मुख तो परम्परागत हैं किन्तु अंतःपार्श्वों में देवप्रतिमाएं अंकित हैं, मल्हार में शिव-पार्वती का द्यूत प्रसंग, पार्वती-परिणय, वरेश्वर शिव, अंधकासुर वध, विनायक-वैनायिकी आदि हैं, जबकि शिवरीनारायण में इस स्थान पर विष्णु के चौबीस रूपों का संयोजन है। (अंतःपार्श्वों तथा द्वारशाख पर विष्णु स्वरूप नारायणपुर में भी है।)

अलग-अलग मंदिरों व स्थलों की चर्चा करें तो किरारीगोढ़ी का खंडित मंदिर स्थापत्य में रथ-योजना प्रक्षेपों की कलचुरि तकनीक देखने के लिये महत्वपूर्ण है, यहां मंडप के चबूतरे से मिले स्थापत्य खंड में 'व्याल, नायिका व देव प्रतिमा' ऐसे समूह वाले कई खंड हैं, जिनसे मंडप की प्रतिमा योजना व अलंकरण का अनुमान होता है, ऐसे ही खंड घुटकू में प्राप्त हुए हैं, बीरतराई के कुछ खंड भी मंडप के अंश जान पड़ते हैं, कनकी से कई द्वारशाख मिले हैं, जो स्थल पर ही नये निर्मित मंदिरों में लगाये गये हैं, भाटीकुड़ा के अवशेष-सिरदल आदि रोचक और महत्वपूर्ण हैं।

श्री मधुसूदन ए. ढाकी को  07.12.1989 को मेरे द्वारा (अन्‍तर्देशीय पर) प्रेषित पत्र का मजमून, इसी पत्र के आधार पर (अन्‍य कोई औपचारिक आवेदन के बिना) मुझे अमेरिकन इंस्‍टीट्यूट आफ इंडियन स्‍टडीज की फेलोशिप मिली थी। (पद्मभूषण) ढाकी जी से जुड़ी कुछ और बातें आगे कभी।